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7. स्वयं पठनार्थ या संग्रह हेतु तैयार प्रति में भी सचेष्ट विकृतियों की संभावना बनी रहती है ।
8. बदले में लिखी प्रति में अपेक्षाकृत कम विकृतियाँ होती हैं, क्योंकि इसमें लिपिकर्ता मक्षिका स्थाने मक्षिका ही लिखने का प्रयास करता है 9. लिपिकर्ता गुरु परम्परा की दृष्टि से अधिक विश्वसनीय प्रति तैयार करता है ।
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विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि जब लिपिकर्ता स्वयं भी रचनाकार हो और उसके पास काफी रचनाएँ हों और सम्प्रदाय विशेष का हो तो ईमानदारी से कार्य करना कठिन रहता है । क्योंकि वह अपनी रचनाओं के अंश भी कभी-कभी समाविष्ट करने का प्रयास कर सकता है ।
11. लेखन - प्रक्रिया (लिपि)
सांस्कृतिक दृष्टि से यूनान, मिश्र, रोम और भारत की संस्कृतियाँ सबसे प्राचीन हैं । सभ्यता के विकास के साथ लेखन (लिपि) का जन्म एवं विकास भी इन्हीं संस्कृतियों की थाती है । यही कारण है कि डॉ. डेविस डिरिंजर अपने 'द अल्फाबेट' नामक ग्रंथ में कहते हैं, "प्राचीन मिश्रवासियों ने लेखन का जन्मदाता या तो थौथ (Thoth) को माना है, जिसने प्रायः सभी सांस्कृतिक तत्वों का आविष्कार किया था, या यह श्रेय आइसिस को दिया है। बेवीलोनवासी माईक पुत्र नेबो (Nebo) नामक देवता को लेखन का आविष्कारक मानते हैं । यह देवता मनुष्य के भाग्य का देवता भी है। एक प्राचीन यहूदी परम्परा में मूसा को लिपि का निर्माता माना गया है। यूनानी पुराणगाथा (मिश्र) में या तो हर्मीज नामक देवता को लेखन का श्रेय दिया गया है, या किसी अन्य देवता को । प्राचीन चीनी, भारतीय तथा अन्य कई जातियाँ भी लेखन का मूल दैवी ही मानते हैं। इसी दैवी - सिद्धान्त को स्वीकारते हुए डॉ. बाबूराम सक्सेना अपने भाषाविज्ञान' नामक ग्रंथ में कहते हैं
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असल बात तो यह है कि ब्राह्मी लिपि' भारतवर्ष के आर्यों की अपनी खोज से उत्पन्न किया हुआ मौलिक आविष्कार है। इसकी प्राचीनता और सर्वाङ्ग सुंदरता से चाहे इसका कर्ता ब्रह्मा देवता माना जाकर इसका नाम ब्राह्मी पड़ा चाहे साक्षर समाज ब्राह्मणों की लिपि होने से यह ब्राह्मी कहलाई हो' और चाहे
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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