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आत्मनिवेदन यों तो पाण्डुलिपिविज्ञान के क्षेत्र में देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में बहुत कुछ कार्य हुआ है; किन्तु हमारे देश में इस क्षेत्र में तुलनात्मक दृष्टि से कम कार्य हुआ है। हिन्दी-क्षेत्र में डॉ. सत्येन्द्र जी द्वारा लिखित 'पाण्डुलिपिविज्ञान' नामक कृति ही अधिकांश विद्यार्थियों की मार्गदर्शक रही है; किन्तु विद्वतापूर्ण इस कृति को सामान्य पाठक के लिए समझना अत्यन्त दुरूह है । यही समझकर हमने सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान' नामक इस कृति को आपके समक्ष प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया है।
वस्तुतः सन् 1965 ई. में जब मैं राज. विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्राध्यापक था, तभी पूज्य गुरुवर डॉ. सत्येन्द्रजी के सन्निर्देशन में 'मेवाती का उद्भव और विकास' विषय पर पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध-कार्य भी कर रहा था। इसी दौरान मैं अनेक प्रकार की पाण्डुलिपियों के सम्पर्क में भी आया। साथ ही स्व. डॉ. रामचन्द्र राय, प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग, राज. विश्वविद्यालय, जयपुर के निर्देशन में मैंने राजस्थान के प्रस्तरलेख एवं शिलालेखों के पढ़ने का भी अभ्यास किया। इस सम्बन्ध में मेरा एक विस्तृत शोध-लेख 'डीडवाना में प्राप्त प्रस्तरलेख' नाम से शोध-पत्रिका, उदयपुर के जुलाई-सितम्बर, 1968 के अंक 3 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद मैं राजकीय महाविद्यालय, डीडवाना से स्थानान्तरित होकर राजकीय महाविद्यालय, कोटपूतली (जयपुर) में आ गया। यहाँ आकर मैं तोरावाटी क्षेत्र में उपलब्ध पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण कार्य में लग गया। इस दौरान लगभग एक हजार पाण्डुलिपियों को देखा-परखा तथा उनमें से कुछ की खोज-रिपोर्ट परिषद पत्रिका, पटना; शोधपत्रिका, उदयपुर; सम्मेलन पत्रिका, प्रयाग; मरुभारती, पिलानी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित की। इस प्रक्रिया में कुछ पाण्डुलिपियों को पढ़ने-समझने हेतु मैं पूज्य गुरुवर डॉ. सत्येन्द्रजी, अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, राज. विश्वविद्यालय, जयपुर से विचारविमर्श करता रहा तथा उनके दिशा-निर्देश में अपना कार्य करता रहा और
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