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'सदाचार प्रकाश' नामक एक पाण्डुलिपि का सन् 1972 में सम्पादन-प्रकाशन किया। इसके बाद सन् 1976 में मेरा ‘मेवाती का उद्भव और विकास' शोधप्रबन्ध प्रकाशित हुआ। सन् 1978 ई. में डॉ. सत्येन्द्रजी की प्रसिद्ध कृति 'पाण्डुलिपिविज्ञान' प्रकाशित हुई। इस दीपक के प्रकाश में मैं आगे बढ़ने लगा। सन् 1980 ई. में मेरी कोटपूतली उपखण्ड का इतिहास', 1982 ई. में 'तोरावाटी का इतिहास' नामक दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनके लेखन के समय मैंने अनेक प्राचीन पट्टे-परवाने, ताम्रपत्र, प्रस्तर-लेखादि पढ़े। फिर सन् 1984 ई में वि.सं. 1855 में लिपिबद्ध 'श्रीराम परत्वम्' एवं सन् 2000 में 'सन्त लालदास एवं लालदासी सम्प्रदाय की वाणी' का सम्पादन किया। इसी बीच सन् 1994 ई. में मेरा सम्पर्क अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर के निदेशक डॉ. कमलचन्द सौगानी से हुआ। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप मैंने अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर से अपभ्रंश भाषा में सर्टीफिकेट और फिर डिप्लोमा परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। अकादमी की प्राकृत-अपभ्रंश डिप्लोमा परीक्षा में 'पाण्डुलिपिविज्ञान : व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक' का एक प्रश्न-पत्र होता है। 'पाण्डुलिपिविज्ञान' में मेरी अभिरुचि को देखते हुए मुझे श्रीमहावीरजी में लगने वाली सम्पर्क कक्षाओं में 'पाण्डुलिपिविज्ञान' पढ़ाने का अवसर मिला। इस दौरान मैं छात्रों की समस्याओं को रेखांकित करता रहा। उन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखकर मैंने 'सामान्य पाण्डुलिपि-विज्ञान' सहज, सरल एवं बोधगम्य शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है, पाठकों को यह पुस्तक 'पाण्डुलिपि-विज्ञान' जैसे जटिल विषय को समझने में सहायक सिद्ध होगी।
'सामान्य पाण्डुलिपि-विज्ञान' को विषय-प्रवेश सहित आठ अध्यायों में विभक्त किया गया है। विषय-प्रवेश में पाण्डुलिपिविज्ञान विषयक सामान्य जानकारी दी गई है। इसके बाद प्रथम अध्याय में 'पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचनाप्रक्रिया', द्वितीय अध्याय में 'पाण्डुलिपि-प्राप्ति के प्रयत्न और क्षेत्रीय अनुसंधान', तृतीय अध्याय में 'पाण्डुलिपि के प्रकार', चतुर्थ अध्याय में लिपि-समस्या और समाधान', पंचम् अध्याय में पाठालोचन', षष्ठ अध्याय में 'कालनिर्णय', सप्तम् अध्याय में 'शब्द और अर्थ : एक समस्या' तथा अष्टम् अध्याय में 'पाण्डुलिपि संरक्षण' विषयक सामग्री का समावेश किया गया है।
(vi)
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