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17. ह्रस्व उकार को जब अग्रमात्रा के रूप में जोड़ते हैं तब उकार के ऊपरवाले
भाग पर शिरोरेखा नहीं होती है - 'कु' = 'क', 'तु' = 'त', 'मु' = 'मा, 'सु' = 'सा'। 18. यदि केवल मात्रा निकालनी (delete करना) हो तो उस मात्रा के ऊपर
इस प्रकार का चिह्न बनाते हैं - 'ति', 'की', 'ते' आदि। 19. गेरू लगाया हुआ भाग ध्यानाकर्षण का चिह्न है, निकालने का नहीं। 20. पुरानी पुस्तकों में यदि पद छूटा हुआ दिखता है या बीच में कहीं पर जगह
छोड़ी गयी दिखती है तो वह लिपि की सुन्दरता बढ़ाने के लिए किया जाता
है।
21. प्राचीन पुस्तकों में अनुनासिक (*) के स्थान पर अनुस्वार (') का प्रयोग
किया गया है।
22. अक्षर यदि अशुद्ध लिखा गया हो और लेखक के ध्यान में आ जाए तो उस
अशुद्ध अक्षर के ऊपर उसी समय शुद्ध अक्षर लिख कर सुखा देता है और जो भाग नहीं चाहिए उस भाग के ऊपर हड़ताल (पीला रंग) लगा कर शुद्ध अक्षर बना देता है, पर यदि हरताल लगाना रह जाए तो वह अक्षर
इस प्रकार दिखाई देता है - 'मम','प'च, 'ह', 'द'' आदि। 23. पहली पंक्ति के ऊपर खाली जगह होने के कारण कतिपय लेखक ह्रस्व
और दीर्घ इकार इस प्रकार बनाते हैं 'जि' = ज, 'सि' = सिं, 'श्री' =
श्री आदि। 24. अक्षर को दो प्रकार से संयुक्त करते हैं । (i) पुरानी विधि से ऊपर नीचे,
जैसे 'क्व' = 'व' और (ii) आधुनिक विधि से अगल-बगल में, जैसे 'क्व'। 25. हलन्त अक्षर को दर्शाने के लिए अक्षर के नीचे एक मात्रा की तरह चिह्न
बनाया जाता है, जैसे 'त्', 'म्'। 26. अवग्रह का चिह्न '5' अथवा '६' इस तरह का होता है। पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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