________________
(ई) मूलपाठ के क्रम-परिवर्तन हेतु। (उ) मूलपाठ में मिश्रपाठ की प्रति का अंश स्वेच्छा से ग्रहण करने हेतु । (ऊ) मिश्र पाठ की प्रति का किसी एक परम्परा की प्रति से स्वेच्छा से मिलान
करते हुए। ऐसा करने के लिए कोई न कोई कारण या भूल होती है, जो निम्न में से
एक हो सकती है : (क) लिपिभ्रम अथवा लिपिसाम्य के कारण। (ख) वर्णसाम्य के कारण। (ग) शब्दसाम्य के कारण। (घ) लिपिकर्ता द्वारा लिखित संकेत-चिह्नों की नासमझी के कारण। (ङ) किसी शब्द का ठीक-ठीक अन्वय नहीं कर सकने के कारण। (च) शब्द या पंक्ति की पुनरावृत्ति के कारण। (छ) अपनी स्मृति के द्वारा लिखने के कारण। (ज) वाचक से सुनकर लिखने के कारण (समान ध्वनि होने के कारण)। (झ) हाँशिये में लिखित पाठ को प्रतिलिपि करते हुए सम्मिलित कर लेने के
कारण। यदि लिपिकर्ता या वक्ता किसी क्षेत्र विशेष का हुआ और दूसरा किसी दूसरे क्षेत्र का, तो लेखन में विकृति होने की सम्भावना बनी रहती है।
प्राचीन पाण्डुलिपियों के पढ़ते या प्रतिलिपि करते समय अनजाने में या ठीक से नहीं पढ़ पाने के कारण लिपिकर्ता द्वारा अनेक विकृतियों या अशुद्धियों का समावेश हो जाता है । इस दृष्टि से भारत में, विशेष रूप से गुजरात और राजस्थान के पाण्डुलिपि भण्डारों में 15वीं से 20वीं शताब्दी तक की नागरीलिपि में लिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करते हुए श्री लक्ष्मणभाई हीरालाल भोजक ने जो अशुद्धियाँ पाईं, उन्हें 'प्राकृत साहित्य स्तवक : द्वितीय भाग' में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि -
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
31
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org