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लिपिकार दश प्रकार के होते हैं । पाण्डुलिपिविज्ञान' के लेखक डॉ. सत्येन्द्रजी ने डॉ. हीरालाल माहेश्वरी के हवाले से लिपिकार के दस प्रकार बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं -
1. जैन श्रावक या मुनि। 2. साधु या आत्मानंदी। 3. गृहस्थ। 4. पढ़ानेवाला (कोई भी हो)। 5. कामदार (राजघराने का क्लर्क या लिपिक)। 6. दफ्तरी - अन्य कार्यों के साथ प्रतिलिपि भी करता था। 7. व्यक्ति विशेष के लिए लिखी गई पाण्डुलिपि का लिपिक। 8. अवसर विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक। 9. ग्रंथ-संग्रह के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक।
10. धर्म विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक। 6. प्रतिलिपि में की गई विकृतियाँ और उनके परिणाम
किसी लिपिकर्ता के असुन्दर लेखन या अशुद्ध लेखन के द्वारा कभी-कभी बड़ी भयंकर भूलें हो जाया करती हैं। जो कुछ लिपिकर्ता ने लिखा उसे यदि पाठक सही ढंग से नहीं समझता है तो कई बार अर्थ के अनर्थ हो जाया करते हैं। मौर्य-शासनकाल में लेखक या लिपिकर्ता प्रशासकीय तंत्र का एक प्रमुख सदस्य हुआ करता था। वह आजकल के पी.ए. या स्टेनों की तरह का व्यक्ति था। सातवीं सदी के एक आदेश-लेख (निर्माण्ड ताम्रपत्र अभिलेख) के अनुसार लेखक राजा के निजी सचिवों में सम्मिलित था और उसके अधिकार और कर्तव्य भी बढ़े हुए थे। राज-काज से आने-जाने वाले पत्रों का पढ़ना और व्याख्या कर अर्थ बताना उसका कार्य था। इस कार्य में जरासी असावधानी से, चाहे लेखक से हुई हो या पाठक से, बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाती है। हरिषेण ने अपने कथाकोष की 24वीं कहानी में लिखा है कि एक लेखक महारानी और मंत्रियों के साथ राजभवन में रहता था। उसकी उपस्थिति में महाराजा के जो पत्र आते
1. पाण्डुलिपिविज्ञान : डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 25
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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