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टैस्टरामैण्ट' का सम्पादन-संशोधन प्रारम्भ किया तो संत अम्ब्रोज ने लिपि सुलेखन में विज्ञ कुछ कुशल अधिकारी एवं कुमारियाँ (Nuns) भेजी जाती थीं। प्राचीन धर्म विहारों (Monastery) में जहाँ ग्रंथ-लेखन कक्ष होता था, लिपिकर्ताओं की सहायतार्थ पाठ-वक्ता (Dictator) भी होते थे, जो ग्रंथ का पाठ बोल-बोल कर लिखाते थे। इसके बाद वह पाण्डुलिपि एक संशोधक के पास जाती थी, जो आवश्यक संशोधन कर उसे चित्रकार (मिनिएटर) के पास भेज देता था, जो उसमें आवश्यक चित्र-सज्जा कर सुन्दर बना देता था।
इसी प्रकार हमारे देश में भी प्राचीन धर्म-विहारों, मन्दिरों, सरस्वती एवं ज्ञान-भण्डारों में लेखकशालाओं का वर्णन मिलता है । मुनि पुण्यविजयजी कहते हैं कि 'कुमार पाल प्रबन्ध' में इन लेखकशालाओं का वर्णन मिलता है । “एकदा प्रातर्गुरून सर्वसाधूंश्च वन्दित्वा लेखकशाला विलोकनाय गताः। लेखका: कागदपत्राणि लिखन्तो दृष्टाः।" जैनधर्म में तो लेखन-कार्य को एक महत्वपूर्ण एवं पवित्र कार्य माना जाता है। जैन संतों-मुनियों द्वारा चातुर्मास में लिखी गई पुस्तकें इसी ओर संकेत करती हैं।
प्राचीनकाल में भारत में ग्रंथ-लेखन का कार्य पहले ब्राह्मणों के हाथ में ही था, किन्तु बाद में यह कार्य कायस्थों के हाथ में चला गया। इस प्रकार कायस्थ वर्ग व्यावसायिक लेखकों का ही वर्ग था, जो बाद में चलकर जातिगत हो गया। मुगलकाल में तो कायस्थ लेखक बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। मौर्यकाल में राजकीय सचिवालय (Secretariate) को 'काय' कहा जाता था। उस 'काय' में स्थित व्यक्ति को कायस्थ कहते थे। कायस्थ-लेखक का लेखन कार्य बहुत सुन्दर माना जाता था। कायस्थ शब्द के अतिरिक्त लेखक के लिपिकार, दिपिकार या दिविर पर्यायवाचियों के साथ भारत में करण, कर्णिन्, शासतिन् तथा धर्मलेखिन पर्यायवाची भी प्रचलित थे। शिलालेखों पर लेख उत्कीर्ण करने वाले लेखक या लिपिकार को शिल्पी, रूपकार, सूत्रधार तथा शिलाकूट कहा जाता था। 5. लिपिकार के प्रकार
इस प्रकार पाण्डुलिपि विज्ञान की दृष्टि से लिपिकार का अत्यधिक महत्व है। उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही हमें पाण्डुलिपियाँ प्राप्त होती हैं। ये
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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