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के अनुसार जहाँ एक ओर एक राज-लेखक में अनेक गुण होने चाहिए, वहीं उसका ब्राह्मण होना भी आवश्यक बताया है। इसका कारण उस समय की सामाजिक स्थिति में ब्राह्मण का कार्य पढ़ना-पढ़ाना माना गया है।
कहने का अभिप्राय यह है कि एक राज-लेखक (लिपिकार) को मंत्रणाभिज्ञ, राजनीतिविशारद, अनेक लिपियों का ज्ञाता, मेधावी, अनेक भाषाओं का जानकार, नीतिशास्त्र-विशारद, संधि-विग्रह के भेद को जाननेवाला, राजकाज में दक्ष, राजा का हितैषी, कार्य और अकार्य का विचार करने वाला, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ और राज-धर्म का ज्ञाता होना चाहिए। प्राचीन भारत में लेखक का स्थान राज-समाज में आदर्शपूर्ण माना जाता था। प्राचीनकाल में लेखक ही पाण्डुलिपि लेखक भी होता था, क्योंकि मुद्रण-कला के अभाव में लेखक जो कुछ लिखता था, वही मैन्युस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) कहलाती थी। उस मूल पाण्डुलिपि की प्रतियाँ-प्रतिलिपि करवाकर मठ-मन्दिरों आदि में सुरक्षित रखी जाती थीं। आज हिन्दी में मल रचनाकार को लेखक कहा जाता है, लेकिन विशेष अर्थ में लिखिया या लिपिकार, लिपिकर्ता भी कह सकते हैं। 4. लिपिकर्ता का महत्व
प्राचीनकाल से ही लिपिकर्ता (लिपिकार) के महत्व को विश्व में स्वीकार किया गया है । रोमन साम्राज्य के बाद वहाँ की ग्रंथ-सम्पदा को कुछ तो विद्वानों ने अपने अधिकार में ले लिया था और कुछ पादरियों (Monks) के हाथ पड़ गई थी। इस युग में प्रत्येक मोनेस्ट्री (धर्म-विहार) में एक स्क्रिप्टोरियम (पाण्डुलिपि-कक्ष) होता था। इस कक्ष में पादरी लोग प्राचीन ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ बड़ी सावधानीपूर्वक स्वयं तैयार करते थे। उनके प्रयास से पाण्डुलिपि-लेखन एक उच्चकोटि की कला मानी जाने लगी। उन पाण्डुलिपियों को अनेक प्रकार के चित्रों से सुसज्जित किया जाता था। आज भी जैन मन्दिरों एवं बौद्ध विहारों में इस प्रकार का प्रचलन वर्तमान है।
प्राचीनकाल में रोम में पाण्डुलिपियों के लिपिकार वे गुलाम होते थे, जिनकी लेखनकला सुन्दर होती थी, उन्हें मुक्त कर दिया जाता था। रोम में कुछ स्त्रियाँ भी व्यावसायिक लिपिकार होती थीं। वे लिपि-सुलेखन (कैलीग्राफी) की जानकार होती थीं। सन् 231 ई. में जब ओरिगेन ने बाइबिल के 'ओल्ड
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
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