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प्रारंभ में लेखक का कार्य मौखिक लोकवार्ता, जो 'अपौरूषेय' मानी जाती थी और वाकविलास - 'मंत्र' - को लिपिबद्ध करना था। इस कार्य में लेखक व्यासजी की तरह एक सम्पादक मात्र माना जाता था। किन्तु; धीरे-धीरे इस शब्द का अर्थ 'मूल-ग्रंथ-रचना-कर्ता' माना जाने लगा। पाणिनिकालीन भारत में 'लेखक' को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, यह निश्चित हो चुका था। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार मौलिक कृति के कृतिकार को 'तन्त्र युक्ति' अर्थात् संगत रूप-विधान का ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं -
1. अभिकार या संगति (अर्थात् आंतरिक व्यवस्था या विज्ञान)। 2. मंगल - मंगल कामना से प्रारंभ। 3. हेत्वर्थ - वर्ण्य विषय या आधार। 4. उपदेश - लेखक या कृतिकार के व्यक्तिगत निर्देश। 5. अपदेश - खण्डन-मण्डन के लिए दूसरों के मत का उदाहरण देना।
कभी-कभी लेखक एवं लिपिकर्ता एक ही होने से उनके मध्य लेखक के साथ पाठवक्ता या वाचक भी अपना स्थान रखता था।
2. भौतिक-सामग्री : ग्रंथ-रचना में दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है - भौतिकसामग्री। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने विक्रम की छठी शताब्दी में रचित 'राजप्रश्रीयोपांग सूत्र' के आधार पर अपने 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' नामक ग्रंथ में भौतिक सामग्री के अन्तर्गत निम्नलिखित वस्तुओं को आवश्यक माना है :____ 1. लिप्यासन - 'लिप्यासन' कई प्रकार के होते हैं । वह वस्तु जिस पर लिखा जाता है, उसे लिप्यासन कहते हैं - जैसे - पेपीरस, ईंट, शिला, पत्थर, ताड़पत्र, भोजपत्र, धातुपत्र, चर्मपत्र, कपड़ा, कागज आदि।
2. मसि - स्याही। 3. लेखनी - कूँची, कलम, टाँकी, कील आदि। 4. डोरा। 5. काष्ठ-पट्टिकाएँ (काम्बिका)
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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