________________
अध्याय 1
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
मानव-सभ्यता के आदिकाल से रेखांकन से लिपि - विकास और लिपिविकास से ग्रंथ-रचना प्रक्रिया तक के लेखन में आदिम आनुष्ठानिक धार्मिक भावना का ही प्राधान्य रहा है। भारत के वेद और मिश्र की 'मृतकों की पुस्तक ' मानव-सभ्यता के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं । वेद तो हजारों वर्षों तक गुरुशिष्य परम्परा से मौखिक भी रहे ; किन्तु मिश्र के खरीते, जो पेपीरस पर लिपिबद्ध होते थे, समाधियों में मृतक के साथ दफना दिये गये थे, ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं । इस प्रकार ये दोनों ही प्राचीन ग्रंथ मानव की धार्मिक एवं आनुष्ठानिक भावना से संबद्ध रहे हैं । इसी प्रकार अन्य देशों के प्राचीन ग्रंथों के संबंध में भी यही बात देखी जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि पाण्डुलिपि - रचना के समय शुभाशुभ की धारणा सदैव विद्यमान रही है । यही कारण है कि ग्रंथ-रचना से सम्बद्ध प्रत्येक साधन या माध्यम इस शुभाशुभ धारणा से युक्त रहा है।
1. पाण्डुलिपि - ग्रंथ - रचना के पक्ष
पाण्डुलिपि-ग्रंथ - रचना के तीन पक्ष प्रधान होते हैं
1. लेखक, 2. भौतिक सामग्री, 3. लिपि और लिपिकर्ता ।
1. लेखक : ग्रंथ-रचना - प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है लेखक । 'लेखक' शब्द का प्रयोग प्राचीनकाल से लेखन-क्रिया के कर्ता के लिए होता आया है। रामायण, महाभारत एवं बौद्ध-साहित्य (पालि) के 'विनयपिटक', महावग्ग एवं जातकों में इस शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इससे लगता है कि उस समय तक लेखन-कला प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी थी, जिसे लोग लेखक होना गौरव का विषय मानते थे। तब तक लेखक होना एक 'व्यवसाय' का रूप ले चुका था । उसे लेखन-व्यवसाय- विशेषज्ञ माना जाता था ।
पाण्डुलिपि-ग्रंथ : रचना-प्रक्रिया
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
-
23
www.jainelibrary.org