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डॉ. सांस्कृत्यायन एवं डॉ. रघुवीर ने भी अनेक कठिनाइयों एवं विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तिब्बत और मंचूरिया से अनेक महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ प्राप्त की थीं।
(2) संस्थागत : पाण्डुलिपि-संग्रह के कार्य में अनेक संस्थाओं के प्रयत्न भी सराहनीय कहे जा सकते हैं । काशी नागरी प्रचारिणी की 1900 ई. से प्रकाशित खोज रिपोर्टों के द्वारा यह विदित होता है कि कितनी ही सामग्री अभी गाँवगाँव और ढाणी-ढाणी में बस्ते-बुगचों में पड़ी अपने उद्धार का इंतजार कर रही है। अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदि के महत्वपूर्ण ग्रंथ, जिनका आज साहित्येतिहास में उल्लेख मिलता है, वे ऐसे ही संस्थागत प्रयत्नों के परिणामस्वरूप प्रकाश में आ पाए थे। अतः कहा जा सकता है कि हस्तलिखित ग्रंथों के संग्रह के साथ ही उनका विवरण भी पाण्डुलिपि विज्ञान के लिए
अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है। ___उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के प्रयत्न तब अधिक कारगर सिद्ध होते हैं; जब अनुसंधानकर्ता आधुनिक वैज्ञानिक शोध-क्षेत्रीय प्रक्रिया से भलिभाँति परिचित हो। आज भी अनेक जैन मन्दिरों, मठों तथा संग्रहालयों में इस प्रक्रिया से कार्य किया जाये तो अनेक महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों का उद्घाटन संभव है।
10. पाठालोचन विज्ञान (Text Criticism) : पाठालोचन विज्ञान भी पाण्डुलिपि विज्ञान के लिए सहायक विज्ञान कहा जा सकता है। प्रारम्भ में यह साहित्य के क्षेत्र में काव्य के मूल-पाठ तक पहुँचने का साधन रहा। बाद में भाषाविज्ञान की एक प्रशाखा के रूप में पल्लवित हुआ, किन्तु वर्तमान में यह स्वतंत्र विज्ञान कहलाता है । वस्तुत: किसी रचना के देश-काल भेद से अनेक पाठों के उपलब्ध होने पर उनमें से मूलपाठ को खोज निकालने वाला विज्ञान ही पाठालोचन विज्ञान है।
पाठालोचन विज्ञान के द्वारा मूल पाण्डुलिपि से अन्य प्राप्त पाठों का मिलान करने पर पाठान्तरों और पाठभेदों में लिपि, वर्तनी एवं शब्दार्थ के रूपान्तर में होने वाली प्रक्रिया का पता चलता है। साथ ही मूल हस्तलेख के कागज, स्याही, पृष्ठांकन, चित्र, तिथिलेखन, हाशिया, आकार, हड़ताल आदि का प्रयोग आदि की बहुत-सी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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