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पाठालोचन विज्ञान के द्वारा एक ही रचना की अनेक प्रतियाँ प्राप्त होने पर उनके तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा मूलपाठ के समीप पहुँचने का प्रयास किया जाता है। प्राचीनकाल में मुद्रणालयों के अभाव में अनेक लिपिकों के द्वारा किसी ग्रंथ की प्रतिलिपियाँ करवाई जाती थीं, जिनमें प्रतिलिपिकार की अयोग्यता के कारण अनेक प्रकार की पाठ की अशुद्धियाँ हो जाया करती थीं। इसीलिए पाठालोचन विज्ञान के द्वारा उन सभी प्रतियों का अध्ययन कर मूलपाठ की खोज की जाती है। और इस प्रकार पाठालोचन विज्ञान पाण्डुलिपि के लिए अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है। 9. पाण्डुलिपि-पुस्तकालय (आगार)
प्राचीनकाल में विश्व में जो कुछ ज्ञान-विज्ञान की प्रगति हुई थी, वह पाण्डुलिपियों के माध्यम से प्राचीन पुस्तकालयों, जिन्हें पाण्डुलिपि आगार भी कहते हैं, में सुरक्षित रखी जाती थीं। इन पाण्डुलिपि पुस्तकालय का इतिहास लगभग 3000 ई. पू. से प्रारम्भ होता है। मिश्र में प्राप्त पेपीरस के खरीते (Scrolls), जिन्हें वलयिताएँ कुण्डलियाँ या खरड़ा भी कहते हैं - ई.पू. 2500 से प्राप्त होते हैं। ये ही प्राचीनतम पाण्डुलिपि के रूप में कहे जाते हैं । इनके बाद मिट्टी की ईंटें (Clay Tablets), पार्चमैण्ट (चर्म पत्र), कागज, छाल, धातुपत्र, भोजपत्र, ताड़पत्रादि लिप्यासनों का प्रयोग मिलता है। डॉ. सत्येन्द्रजी ने अपने 'पाण्डुलिपि विज्ञान' नामक ग्रंथ में देश-विदेश के अनेक प्राचीन पुस्तकालयों की एक सूची परिशिष्ट में दी है।' उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं -
क्र. वर्ष (लगभग)
स्थान
ग्रंथ
स्थापनकर्ता लिप्यासन
6
|
2
3
4
5
पेपीरस
12500 ई.पू. 2 | 2300 ई.पू.
ईंटों पर लेख
-
| गिजेह ऐब्ले (तैल्लमारडिख
के पास) | अमर्ना
3|1400 ई.पू.
एमहोटोप | पेपीरस तृतीय
1. पाण्डुलिपि विज्ञान, परिशिष्ट -- एक, पृ. 362-373
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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