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प्रायः पाण्डुलिपियों की पुष्पिकाओं में लेखक, लिपिकर्ता, जिस समय में लिप्यांकन किया गया है उस समय के शासक या जिस शासक अथवा राज्याश्रय में पाण्डुलिपि लिखी गई है उस शासक का नाम, समय आदि भी लिपिबद्ध किये जाते हैं। इन पुष्पिकाओं के द्वारा अनेक ऐतिहासिक भूलों का सुधार भी होता है। देशकाल के अनुसार लिप्यासन या कागज का भी एक इतिहास होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि इतिहास की बहुत-सी सामग्री प्राचीन पाण्डुलिपियों से प्राप्त होती है। अत: इतिहास और पाण्डुलिपि विज्ञान का गहरा संबंध है।
9. शोध-प्रक्रिया-विज्ञान (Research Methodology) : वर्तमान काल में पाण्डुलिपियों को प्राप्त करने के लिए शोध-प्रक्रिया-विज्ञान का अत्यधिक महत्व है। शोधार्थी जब पाण्डुलिपियों की खोज में निकलता है तो उसे इस विज्ञान का सहारा लेना ही पड़ता है। बिना खोज किए पाण्डुलिपियाँ प्राप्त नहीं हो सकतीं। खोज-विज्ञान के द्वारा हमें पाण्डुलिपि खोज करने के सिद्धान्तों का ही ज्ञान नहीं होता, अपितु उससे हमें शोध-क्षेत्र में कार्य करने का व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त होता है। पाण्डुलिपि भण्डारों, पुस्तकालयों के अतिरिक्त अनेक पाण्डुलिपियाँ इतस्त: बिखरी रहती हैं, जिन्हें प्राप्त करना, उनका विवरण तैयार करना, या अन्य प्रकार से उनका उद्घाटन करना अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है।
पाण्डुलिपियों को प्राप्त करने के लिए दो प्रकार के प्रयत्न किये जा सकते हैं - (1) व्यक्तिगत, (2) संस्थागत।
(1) व्यक्तिगत : पाण्डुलिपि विज्ञान की दृष्टि से व्यक्तिगत प्रयत्न का बहुत महत्व है। इस प्रकार का प्रयत्न करने वाले अनेक विद्वानों - कर्नल टॉड, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, टैसीटरी, डॉ. रघुवीर, राहुल सांस्कृत्यायन, मुनि जिनविजय, अगरचंद नाहटा, डॉ. हीरालाल माहेश्वरी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। हमने भी इस दृष्टि से अनेक खोज-रिपोर्ट, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की प्रमुख पत्रिका 'परिषद् पत्रिका' के माध्यम से प्रकाशित की हैं। इन व्यक्तिगत प्रयत्नों के फलस्वरूप अनेक शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, पाण्डुलिपियाँ आदि प्रकाश में आई हैं । इस दृष्टि से डॉ. टेसीटरी ने विशेष रूप से राजस्थानी साहित्य की खोज कर अनेक महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियों की जानकारी दी। इसी प्रकार
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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