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________________ से. से अधिक होना चाहिए। साथ ही नमी 45-55 प्र.श. के बीच रहनी चाहिए। यदि तापमान और नमी को अनुकूल नहीं रखा जा रहा हो तो थाईमल रसायन से वाष्प चिकित्सा (Fumigation) करना चाहिए। (2) कीड़े-मकोड़े : ये दो प्रकार के होते हैं । प्रथम प्रकार का काकरोच पाण्डुलिपि के ऊपरी भाग - जिल्द, चमड़े, पुढे को क्षति पहुँचाता है और दूसरा रजत कीट (Silver fish) एक छोटा, पतला, चाँदी सा चमकीला कीड़ा होता है, जो पाण्डुलिपि को बाहर से क्षति पहुँचाता है । इनसे पाण्डुलिपि की रक्षा करनी चाहिए। हो सके वहाँ तक ग्रंथागार में कोई खाने-पीने की वस्तु नहीं रखें। इसके बाद ग्रंथों की अलमारी एवं आस-पास छिद्रों में सावधानीपूर्वक डी.डी.टी., पाट्टोत्यम, सोडियम क्लोराइड, नेफ्थलीन की गोलियाँ आदि का छिड़काव करना चाहिए। अँधेरे कोनों, दरारों, छिद्रों, दीवारों आदि पर छिड़काव ठीक रहता है। ग्रंथ पर छिड़कने से धब्बे पड़ने का डर रहता है। दूसरी प्रकार के कीट ग्रंथ को भीतर से क्षति पहुँचाते हैं । ये भी दो प्रकार के होते हैं - 1. पुस्तक कीट (Book worm) 2. सोसिड (Psocid)। इनमें बुक वर्म के लारवे तो ग्रंथ के पन्नों में ऊपर से लेकर नीचे तक आर-पार छेद कर देते हैं और अंदर-अंदर गुफाएँ बनाकर पाण्डुलिपि को नष्ट कर देते हैं । यही लारवा उड़कर दूसरी पुस्तकों पर कीटों को जन्म दे देता है। सोसिड, पुस्तकों की नँ होती है। यह पुस्तक को भीतर ही भीतर क्षति पहँचाती है। इनसे मुक्ति पाने के लिए घातक गैसों की वाष्प चिकित्सा की जानी चाहिए। ये गैसें हैं - एथीलीन ऑक्साइड एवं कार्बनडाइ आक्साइड मिलाकर वातशून्य वाष्पन करना चाहिए। और भी अनेक वैज्ञानिक विधियाँ उपलब्ध हो सकती हैं। (3) दीमक : ऊपर वर्णित कीटों में दीमक सर्वशक्तिमान हानिकारक कीड़ा है। इसका घर भूगर्भ में होकर मकानों की छतों, लकड़ी, कागज आदि व्यापक होता है। दीमक पाण्डुलिपियों की बहुत बड़ी शत्रु है। यह भीतर ही भीतर पाण्डुलिपि को खाकर नष्ट कर देती है। इससे भण्डारगृह की रक्षा करने के जहाँजहाँ दीमक के द्वारा बनाई गई सुरंग हो वहाँ तारकोल या क्रियोसोट तेल डाल देना चाहिए। साथ ही डी.डी.टी. का घोल भी छिड़का जा सकता है। पाण्डुलिपियों की दीमक से सुरक्षा का कारगर उपाय धातु-निर्मित अलमारी हो 202 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002693
Book TitleSamanya Pandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirprasad Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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