________________
चूहे और कंसारी आदि से बचाने के लिए ग्रंथों को संदूकों में रखा जाता था। संदूकों में पुस्तकों के कीड़े नहीं लगें यह सुनिश्चित करने के लिए कग्गार की लकड़ी का बुरादा भर दिया जाता था । इस संग्रह की रखवाली विश्वासपात्र लोगों के द्वारा की जाती थी । इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में ग्रंथों की रक्षार्थ स्थान का चुनाव, आक्रमणकारी से बचाव के उपाय, रखरखाव में सावधानी तथा पूज्यभाव रखने की परम्परा थी । पाश्चात्य विचारक कूलर एवं बर्जे का भी यही मत है । कूलर ने बताया है कि उसने गुजरात, राजपूताना, मराठा प्रदेश तथा उत्तरी एवं मध्य भारत में कुछ अव्यवस्थित संग्रहों के साथ ब्राह्मणों तथा जैनों के अधिकार में विद्यमान अत्यन्त ही सावधानी से सुरक्षित पुस्तकालयों को देखा है । अतः कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में ग्रंथ - रक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
2. आधुनिक युग के वैज्ञानिक प्रयत्न
आज का युग विज्ञान का युग है । अत: पाण्डुलिपियों की सुरक्षा के लिए भी कई उपाए खोजे गए हैं। अभिलेखागारों, पाण्डुलिपि संग्रहालयों तथा अन्य संस्थाओं में अब नई तकनीक का उपयोग किया जाता है । ग्रंथ की माइक्रोफिल्म एवं फोटोस्टेट प्रति के द्वारा हम काफी नष्ट होती पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रख सकते हैं। आज तो प्रत्येक अभिलेखागार या ग्रंथागारों में रख-रखाव पर विशेष ध्यान दिये जाने पर बल दिया जाता है । अनेक ऐसी संस्थाएँ भी कार्यक्षेत्र में हैं जो नष्ट प्रायः इस विरासत को बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं । इण्डियन काउन्सिल ऑफ कन्जर्वेशन इन्स्टीट्यूट्स (इन्टेक) यू.के., एक ऐसी ही संस्था है । सामान्यतः ग्रंथागार के भवन का तापमान 22° और 25° से. के बीच रहना चाहिए तथा नमी 45% और 55% के बीच रखी जाए। आजकल तो वातानुकूलित विधि से सभी कुछ संभव है ।
3. पाण्डुलिपियों के शत्रु
(1) भुकड़ी एवं फफूँद भुकड़ी और फफूँद पाण्डुलिपियों के दो बड़े शत्रु हैं । अंग्रेजी में इन्हें क्रमश: Mould और Fungus कहते हैं । पाण्डुलिपियों में ये प्राय: 45° से. पर धीरे-धीरे बढ़ते हैं, लेकिन 27-35° से. पर ये बहुत तेजी से बढ़ते हैं। इन्हें रोकने या नष्ट करने के लिए ग्रंथागार भवन का तापमान 30°
पाण्डुलिपि-संरक्षण ( रख रखाव )
Jain Education International
:
For Private & Personal Use Only
201
www.jainelibrary.org