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ताडपत्र की पुस्तकें उतने अधिक समय तक रह नहीं सकतीं जितनी कि नेपाल आदि शीत देशों में रह सकती हैं। यही कारण है कि उत्तरी नेपाल में पाण्डुलिपियों की खोज की गई तो प्राचीन ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियाँ अधिक अच्छी हालत में प्राप्त हुईं। यद्यपि ताड़पत्रों पर प्राचीन ग्रंथ बहुत कम मिलते हैं, फिर भी दूसरी से 10वीं शदी तक के छः ग्रंथ या उनके अंश उपलब्ध हुए हैं। इस प्रकार 11वीं शती के पूर्व के ग्रंथ बहुत कम मिलते हैं। ___कमोबेश यही स्थिति भोजपत्रीय पाण्डुलिपियों की है। काश्मीर से प्राप्त चार भोजपत्रीय पाण्डुलिपियाँ दूसरी से आठवीं शदी तक की हैं। वे भी इसलिए सुरक्षित रही कि उनको स्तूपों के भीतर पत्थरों के मध्य सुरक्षित रखा गया था। इस संबंध में डॉ. ओझाजी कहते हैं कि "ये पुस्तकें स्तूपों के भीतर रहने या पत्थरों के बीच गढ़े रहने से ही उनके दीर्घकाल तक बच पायी हैं, परन्तु खुले वातावरण में रहने वाले भूर्जपत्र के ग्रंथ ई. स. की 15वीं शताब्दी से पूर्व के नहीं मिलते, जिसका कारण यही है कि भूर्जपत्र, ताड़पत्र या कागज अधिक टिकाऊ नहीं होता।''2 अर्थात् 4-5 सौ साल से अधिक पुराने ग्रंथ नहीं मिलते। यही हालत कागज के ग्रंथों की भी है । क्योंकि "भारतवर्ष के जलवायु में कागज बहुत अधिक काल तक नहीं रह सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि ताड़पत्रीय, भूर्जपत्रीय, कागजीय लिप्यासन पर लिखित रचना बहुत नीचे, गहरे, दबाकर रखने से ही दीर्घजीवी हो सकती है। इसलिए सुरक्षात्मक रख-रखाव की दृष्टि से इस ओर ध्यान देना चाहिए। ____ उपर्युक्त प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भौतिक कारण भी रहे हैं जिनसे प्राचीन पाण्डुलिपि ग्रंथागार सुरक्षित नहीं रहे। कहते हैं सिकन्दर के आक्रमण के समय तक्षशिला विश्वविद्यालय का पुस्तकालय भी नष्ट कर दिया गया था। वहाँ से जो विद्वान जान बचाकर जितनी पाण्डुलिपियाँ लादकर ले जा सकता था वे तिब्बत में जाकर सुरक्षित रह पाईं। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने प्रथम बार उनका उद्धार किया था। इसी प्रकार भारत में अनेक विदेशी आक्रान्ता आए जिन्होंने मंदिरों, मठों, बिहारों, पुस्तकालयों, ग्रंथागारों, नगरों आदि को नष्ट1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला : डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पृ. 143 2. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 144 3. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 145
पाण्डुलिपि-संरक्षण (रख रखाव)
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