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भ्रष्ट कर दिया था या आग लगा कर जला दिया था। कुछ बाद की साम्प्रदायिक वैमनश्यता के कारण भी ग्रंथों का विनाश हुआ। अलाउद्दीन खिलजी के लिए तो कर्नल टॉड कहते हैं - "सब जानते हैं कि खून के प्यासे अल्ला (अलाउद्दीन) ने दीवारों को तोड़कर ही दम नहीं ले लिया था वरन् मन्दिरों का बहुत-सा माल नींवों में गड़वा दिया, महल खड़े किये और अपनी विजय के अन्तिम चिह्नस्वरूप उन स्थलों पर गधों से हल चलवा दिया, जहाँ वे मन्दिर खड़े थे।" __ यही कारण था कि प्राचीनकाल में ग्रंथों की सुरक्षा एवं रख-रखाव को ध्यान में रखते हुए इन ग्रंथागारों को भण्डार तहखानों में रखा जाता था। ताकि किसी आक्रमणकारी की लालचभरी दृष्टि वहाँ तक नहीं जाये। अणहिलवाड़ा के प्राचीन ग्रंथागार इसी कारण अलाउद्दीन की दृष्टि से बच गये थे। राजस्थान में भी ऐसे तहखानों में ही ग्रंथों को सुरक्षित रखने की प्राचीन परम्परा रही है। जैसलेर जैसे रेगिस्तान के इलाके में ग्रंथों का भण्डारण करने के पीछे भी यही मंशा रही थी कि किसी भी आक्रमणकारी की नज़र वहाँ तक न जाये। मंदिरों में भी भूगर्भ कक्ष बनाए जाते थे, जहाँ आपातकाल में इन ग्रंथों को छिपाकर रखा जाता था। इस प्रकार के तहखाने सांगानेर, आमेर, नागौर, जैसलमेर, अजमेर, फतेहपुर, दूनी, मालपुरा आदि स्थानों पर भी मिलते हैं जहाँ प्राचीन जैन-साहित्य की पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं। वस्तुतः अत्यधिक असुरक्षा के कारण ही पाण्डुलिपि ग्रंथागारों को सामान्य पहुँच से दूर स्थापित किया जाता था। इस प्रकार के ग्रंथ भण्डारों के अन्यत्र भी उल्लेख मिलते हैं। डॉ. सत्येन्द्र कहते हैं, "डॉ. रघुवीर ने मध्य एशिया में तुनह्वाँङ्स्थान की यात्रा की थी। यह स्थान बहुत दूर रेगिस्तान से घिरा हुआ है। यहाँ पहाड़ी में खोदी हुई 476 से ऊपर गुफाएँ हैं जिनमें अजन्ता जैसी चित्रकारी है, और मूर्तियाँ हैं । यहाँ पर एक बंद कमरे में, जिसमें द्वार तक नहीं था, हजारों पाण्डुलिपियाँ बंद थीं, आकस्मिक रूप से उनका पता चला। एक बार नदी में बाढ़ आ गई, पानी ऊपर चढ़ आया और उसने उस कक्ष की दीवार में सेंध कर दी जिसमें किताबें बंद थीं। पुजारी ने ईंटों को खिसका कर पुस्तकों का ढेर देखा। कुछ पुस्तकें उसने निकाली। उनसे विश्व के पुराशास्त्रियों में हलचल मच गई। सर औरील स्टाइन दौड़े गये और
1. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 202
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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