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सकता है कि कौनसी शती से कब तक अमुक अक्षर कैसे लिखा जाता रहा है। उसकी बनावट देख कर रचना के काल का संकेत लिया जा सकता है। कई बार एक-सी लिपि की दो पाण्डुलिपियों की तुलना करने पर भी, यदि एक पाण्डुलिपि का काल-ज्ञान है तो अनुमान से दूसरी का भी काल-संकेत ग्रहण करने में मदद मिलती है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने शिलांकित ‘राउलवेल' नामक रचनाकाल निर्णय इसी तुलनात्मक विधि से किया था। वे कहते हैं, "ऐसी परिस्थितियों में लेख का समय-निर्धारण केवल लिपि-विन्यास के आधार पर संभव है। इसकी लिपि सम्पूर्ण रूप से भोजदेव के 'कूर्मशतक' वाले धार के शिलालेख से मिलती है। (दे. इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ. 241)। दोनों में किसी भी मात्रा में अन्तर नहीं है और उसके कुछ बाद के लिखे हुए अर्जुन वर्मन देव के समय के 'पारिजात मंजरी' के धार के शिलालेख की लिपि किंचित् बदली हुई है (दे. इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ. 96) इसलिए इस लेख का समय 'कूर्मशतक' के उक्त शिलालेख के आस-पास ही अर्थात् 11वीं शती ईस्वी होना चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि लिपि द्वारा भी काल निर्णय किया जा सकता है; क्योंकि लिपि का विशेष रूप काल से सम्बद्ध है और ज्ञातकालीन रचना की लिपि से तुलना करने पर साम्य देख कर काल-निर्धारण किया जा सकता है।
(4) लेखन-शैली एवं (5) अलंकरण : अन्त:साक्ष्य में लेखन शैली एवं अलंकरणादि का प्रयोग भी काल-निर्णय करने में बड़े सहायक सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक युग या काल की लेखन-शैली की अपनी विशेषता होती है। लिखने की पद्धति, उसे अलंकृत करने के प्रतीक-चिह्न, उनसे संबंधित संकेताक्षरों का प्रयोग, मांगलिक चिह्नों का अंकन आदि सभी काल सापेक्ष ही हैं। उदाहरण के लिए पाँचवीं शती ईसा पूर्व जिन संकेत चिह्नों का प्रयोग किया जाता था, वह बाद में नहीं मिलता। जैसे - स, समु, सव, सम्व, संवत् संकेताक्षरों का प्रयोग 'संवत्सर के लिए' होता था। इसी तरह बाद के संकेताक्षरों के द्वारा भी एक कालक्रम निर्धारित किया जा सकता है।
लेखन शैली में संबोधन एवं उपाधिबोधक शब्दों का भी महत्व है। उदाहरण के लिए नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त 'स्वामी' शब्द को लिया जा सकता है। भरतमुनि 1. राउलवेल और उसकी भाषा, पृ. 19
काल-निर्णय
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