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के 'नाट्यशास्त्र' के काल निर्णय की समस्या का समाधान इसी उपाधिसूचक शब्द से किया गया है । अनेक विद्वानों ने अपनी तरह से 'नाट्यशास्त्र' का रचना-काल निर्धारित करने के प्रयत्न किये हैं, परकाणे महोदय ने प्रो. सिल्वियन लेवी का एक उदाहरण दिया है कि उन्होंने 'नाट्यशास्त्र' में संबोधन संबंधी शब्दों में 'स्वामी' का आधार लेकर और चष्टन जैसे भारतीय शक शासक के लेख में चष्टन के लिए 'स्वामी' का उपयोग देखकर यह सिद्ध किया कि भारतीय 'नाट्यकला' का आरम्भ भारतीय शकों के क्षत्रपों के दरबारों से हुआ अर्थात् विदेशी शक- राज्यों की स्थापना से पूर्व भारतवासी नाटक से अनभिज्ञ थे । नाट्यशास्त्र में 'स्वामी' शब्द का सम्बोधन भी शक शासकों के दरबारों में प्रचलित शिष्ट प्रयोगों से लिया गया है। "" इस प्रकार 'स्वामी' सम्बोधन को देखकर और नाट्यशास्त्र में राजा के लिए उसे प्रयुक्त बताया देखकर कुछ विद्वान नाट्यकला का आरंभ भी विदेशी शक शासकों से मानने लगे थे । राजन्, महाराजा, महाराजाधिराज, राजाधिराज परमेश्वर, महाप्रतिहार आदि उपाधियों और नामों
एक लम्बी सूची बनायी जा सकती है और प्रत्येक की कालावधि ऐतिहासिक काल - क्रमणिका में स्थिर की जा सकती है, तब ये काल-निर्धारण में अधिक सहायक हो सकते हैं ।
इसी तरह अलंकरणादि का प्रयोग भी काल - क्रमानुसार मिला करते हैं । अतः उनकी भी क्रमबद्ध सूची बनाकर काल - संकेत ग्रहण किये जा सकते हैं ।
(ख) सूक्ष्म- साक्ष्य के अन्तर्गत जिन बातों का सहयोग लिया जा सकता है वे निम्नलिखित हैं (1) विषयवस्तु, (2) रचना में आये उल्लेख (क) ऐतिहासिक (ख) रचनाकारों के उल्लेख (ग) समय - संकेत, (घ) सांस्कृतिक विवरण, (ङ) सामाजिक परिवेश ।
(1) विषय-वस्तु सम्बंधी साक्ष्य में वस्तु संबंधी बातें आती हैं । जैसे - काणे महोदय ने भरत के 'नाट्यशास्त्र' के काल - निर्णय संबंधी चर्चा करते हुए उसमें उल्लिखित चार अलंकारों का विवरण दिया है। वे हैं - उपमा, दीपक, रूपक एवं यमक। उनका कहना है कि 500-600 ई. में भट्टी, भामह, दण्डी और उद्भट ने
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1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 286 2. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 297
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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