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भी हो सकते हैं । लिपिविज्ञान के विद्यार्थी यह भलिभाँति जानते हैं कि लिप्यासनों के प्रकारों से लेखन के विभिन्न युगों से संबंध है । उदाहरण के लिए ईसा से 3000 वर्ष पूर्व तक ईंटों पर लेखन होता था । इसके बाद 3000 ई.पू. से पेपीरस के खरड़ों (Rales) का युग आता है। इसी तरह ई. पू. 1000 से 800 के मध्य कोडेक्स या चर्म-पुस्तकों का युग माना जाता है । बाद में सन् 105 ई. से लिप्यासन के लिए कागजों का प्रयोग प्रारंभ होता है। इसके साथ ही अन्य लिप्यासनों का प्रयोग भारत में प्राय: बन्द - सा हो गया था । कागज का सर्वाधिक उपयोग हुआ। कागजादि लिप्यासनों पर भी काल का प्रभाव पड़ता है । यह प्रभाव जलवायु • और वातावरण के अनुसार कम या ज्यादा पड़ता रहता है । पाण्डुलिपि विज्ञान का जानकार व्यक्ति पाण्डुलिपि के कागज आदि को देख कर अनुभव से काल-निर्णय का अनुमान लगा सकता है। इस अनुमान को फिर अन्य पुष्टप्रमाणों से पुष्ट किया जाता है। इसी प्रकार एक ही प्रकार की दो पाण्डुलिपियों में कागज की जीर्ण-शीर्णता के द्वारा भी उसकी प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह भी देखना होता है कि कागज देशी है या मिल का बना । क्योंकि हमारे देश में 20वीं शती पूर्व प्राय: देशी कागज ही पाण्डुलिपियों में काम में आता था । अतः किसी वैज्ञानिक साधन के द्वारा कागज की प्राचीनता को निश्चित किया जा सकता है ।
( 2 ) स्याही : प्रति के काल - संकेत का पता लगाने में व्यवहृत स्याही भी बड़ी सहयोगी सिद्ध हो सकती है । आजकल प्रचलित वैज्ञानिक विधि से स्याही के द्वारा रचना के काल का संकेत प्राप्त किया जा सकता है । इस दृष्टि से स्वानुभव द्वारा भी स्याही की प्राचीनता का अनुमान किया जा सकता है ।
( 3 ) लिपि : प्रत्येक लिपिक या लेखक का अपना लिखने का एक ढंग होता है। इसमें यह देखना होता है कि जिस लिपि में लेखक ने लिखा है उसका रूप और अक्षर किस प्रकार लिखे गए हैं। क्योंकि लिपि एक विकासात्मक प्रक्रिया है । लिपि वैज्ञानिकों ने शिलालेखों की प्राचीन 8 वर्णमाला से लेकर आज तक के लेखन की कला का काल विभाजन भी किया है। इसके अन्तर्गत अक्षर का एक लिपि-रूप एक विशेष काल - सीमा में चला है । इस प्रकार डॉ. ओझा ने अपने प्राचीन लिपिमाला ग्रंथ में ऐसे चार्ट प्रस्तुत किये हैं जिनसे यह पता लग
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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