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कार्य किया है। इन सभी के कार्य को ध्यान में रखते हुए डॉ. सत्येन्द्र द्वारा सन् 1978 ई. में प्रस्तुत 'पाण्डुलिपिविज्ञान' ही आज विश्वविद्यालयी पाठक के लिए प्रकाश स्तम्भ है ।
2. पाण्डुलिपिविज्ञान : नामकरण की समस्या
वस्तुतः हजारों वर्ष पूर्व मनुष्य ने लेखन कला का आविष्कार किया था । तब से वर्तमान तक मनुष्य द्वारा लिपिबद्ध सामग्री अनेक रूपों में प्राप्त होती रही है । सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ लेखन - कला का भी विकास हुआ है। प्रारंभ में वह गुफाओं, ईंटों, पत्थरों और शिलालेखों पर लिखता रहा । बाद में मोमपाटी, चमड़ा, ताड़पत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र तथा कपड़े आदि पर भी इस कला का विकास करता रहा । अतः यह लेखनीबद्ध या लिपिबद्ध सामग्री ही पाण्डुलिपिविज्ञान का विषय है । इतिहासकारों ने इस प्रकार की सामग्री का पुराभिलेख, शिलालेख, प्रस्तरलेख, ताम्रलेख आदि नामों से अपने-अपने इतिहास ग्रंथों में उल्लेख किया है; किन्तु जिस पाण्डुलिपिविज्ञान की हम चर्चा कर रहे हैं, उसका विषय पुस्तक-लेखन कला से संबद्ध है। आंग्लभाषा में इसे 'मैन्युस्क्रिप्ट्स' कहा जाता है । इस प्रकार हस्तलेख, पाण्डुलिपि या मैन्युस्क्रिप्ट्स एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं ।
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'मैन्युस्क्रिप्ट्स' लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ 'हाथ की लिखाई ' या लिखावट है । अर्थ-विस्तार की दृष्टि से जो सामग्री छपी हुई या टंकित नहीं है, वह सब मैन्युस्क्रिप्ट्स ही कहलाती है । कहने का अभिप्राय यह है कि छापाखाने की छपाई से पूर्व की वह समस्त सामग्री जो पेपीरस, पार्चमैण्ट ( चमड़ा), धातु, पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, कपड़े, वृक्षों की छाल, चमड़ा, भोजपत्र या कागज आदि पर लिखी गई हो, वह मैन्युस्क्रिप्ट्स ही कहलायेगी ।
3. पाण्डुलिपि के भेद
विकास-क्रम से पाण्डुलिपि के निम्नलिखित भेद कहे जा सकते हैं (1) गुहालेख या भित्ति चित्र : प्रारम्भ में सभ्यता के विकास-क्रम में मनुष्य अपनी आदिम-अवस्था में गुफाओं में रहता था । वहाँ रहते हुए उसने अपनी स्मृति को स्थायी रूप देने के लिए गुहालेख या भित्ति चित्र अंकित किये।
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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