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॥ श्री गणेशायनमः॥ श्रीगुरवे नमः॥
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
1. विषय-प्रवेश ___ 21वीं शताब्दी को कंप्यूटर की शताब्दी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अत्याधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में पीछे मुड़कर देखना अत्यधिक कठिन हो रहा है। हमारे पूर्व-पुरुषों का चिरसंचित ज्ञान-विज्ञान, जिन हस्तलिखित ग्रंथों, पाण्डुलिपियों में सुरक्षित है वह आज संकट की घड़ी से गुजर रहा है। इसके प्रत्यक्षत: दो कारण हैं - प्रथम, प्राचीन हस्तलिखित सामग्री के पढ़ने की समस्या और दूसरे, उसके अर्थ को समझने की कठिनाई । ये दोनों ही बातें दो तरह के विचारकों की अपेक्षा रखती हैं - प्रथम, पाण्डुलिपि या हस्तलेख के पाठक की तथा दूसरे, उस पाठ के अर्थ को समझने-समझानेवाले विद्वान् भाषाविद् की। कहने का अभिप्राय यह है कि आज आवश्यकता है प्राचीन सामग्री को, जो आज से हजारों वर्षों पूर्व चट्टानों, धातुपत्रों, ताड़पत्रों, चर्मपत्रों, कपड़ा एवं कागजों पर लिपिकृत है, उसे समझने वाले पाण्डुलिपि वैज्ञानिकों की और दूसरे, भाषा के प्राचीन स्वरूप एवं व्याकरण को समझनेवाले भाषा वैज्ञानिकों की। हमारा लक्ष्य यहाँ पाण्डुलिपि के विद्यार्थी के लिए कुछ सामान्य निर्देश देने का है, जो उसे इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए सहायक सिद्ध हो सके।
यों तो पाण्डुलिपिविज्ञान को लेकर देश-विदेश में अनेक विद्वानों के प्रयास चल रहे हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में पश्चिम में अधिक कार्य हुआ है । हमारे देश में इस संदर्भ में सोचने-समझने वाले बहुत कम विद्वान ही हुए हैं, फिर भी जिन्होंने इस क्षेत्र में मार्गदर्शन करवाया है, उनमें डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के नाम को विस्मृत नहीं किया जा सकता। गुजरात में भी मुनि पुण्यविजय आदि अनेक जैन विद्वानों ने इस संबंध में बहुत कुछ लिखा है । हिन्दी में डॉ. माताप्रसाद गुप्त, पं. उदयशंकर शास्त्री, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सत्येन्द्र, डॉ. हीरालाल माहेश्वरी आदि विद्वानों ने पिछले लगभग 2-3 दशकों में अत्यधिक प्रशंसनीय
सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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