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________________ उपर्युक्त विवरण से एक बात स्पष्ट है कि इन विद्वानों ने अष्टाध्यायी की अंतरंग सामग्री के आधार पर ही अपने-अपने अनुमान प्रस्तुत किये हैं। जिनका मुख्याधार पाणिनि किन बातों से परिचित थे या अपरिचित थे, रहा है। इन्हीं आधारों पर पाणिनि का समय 400 ई.पू. निर्धारित करते हैं। लेकिन इन आधारों की अंतरंग साक्ष्य के आधार पर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने ग्रंथ India as known to Panini (पाणिनिकालीन भारत) में विस्तार से आलोचना की है। अतः कभी-कभी 'कालनिर्णय' हेतु ग्रंथकार के ग्रंथ में आई सामग्री के आधार पर भी निर्भर किया जा सकता है। साथ ही तत्कालीन प्रचलित अनुश्रुतियों को भी अनदेखा नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इस प्रकार प्राचीन लेख, साहित्य, ग्रंथ एवं अन्य पाण्डुलिपियों के सम्बंध में काल-निर्णय हेतु अन्तरंग साक्ष्य अत्यधिक सहायक हो सकता है। उपर्युक्त पद्धतियों के अतिरिक्त 'काल-संकेत' की और भी पद्धति है जिसे 'जटिल-पद्धति' कह सकते हैं। प्रायः 15वीं शती के बाद के हस्तलिखित साहित्य या लेखों में इस पद्धति को देखा जा सकता है। इस पद्धति के द्वारा रचनाकार, चमत्कार, कवि कौशल या अनोखापन दिखाने का प्रयास करता है। अथवा यों कहें कि वह नवीनता प्रदर्शित करना चाहता है। डॉ. सत्येन्द्र ने पाण्डुलिपिविज्ञान में एक ऐसा ही उदाहरण हिन्दी के कवि सबलश्याम द्वारा ग्रंथ रचनाकाल का उल्लेख करते हुए दिया है - संवत सत्रह सै सोरह दस, कवि दिन तिथि रजनीस वेद रस। माघ पुनीत मकर गत भानू, असित पक्ष ऋतु शिशिर समानू । अर्थात् संवत् सत्रह सै सोरह दस = 1716+10 1726 (विक्रमी) दिन - कवि दिन = शुक्रवार तिथि - रजनीस (चंद्रमा) 1 + वेद = 4 + रस - 6 = 11 (एकादशी) महीना - माघ, असित (कृष्ण) पक्ष, मकर राशि का सूर्य, ऋतु - शिशिर । इस प्रकार इस कवि ने सामान्य परम्परा से अलग सिद्ध करने का प्रयास किया है। अत: काल-संकेत की यह पद्धति 'जटिल पद्धति' मानी जा सकती है। 160 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002693
Book TitleSamanya Pandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirprasad Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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