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समकालीन संदर्भो के आधार पर ।
काल-निर्णय के सम्बन्ध में उपर्युक्त 2 पद्धतियों के अतिरिक्त एक तीसरी पद्धति समकालीन संदर्भो के आधार काल-संकेत प्राप्त करने की है। जब ऐसे लेख प्राप्त हों जिनमें न राज्यारोहण के वर्ष की गणना दी गई है और न ही नियमित संवत् का उल्लेख है, तब उन लेखों में संदर्भित समकालीन शासकों या व्यक्तियों के आधार पर काल-निर्णय किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अशोक के 13वें शिलालेख में समकालीन अनेक विदेशी राजाओं के नाम आये हैं। अत: उनकी ज्ञात-तिथियों के आधार पर अशोक का काल-निर्णय हो सकता है. जैसे - शिलालेख में यूनानी राजा अंतियोकस द्वितीय - जो ई.पू. 261-41 तक पश्चिमी एशिया के शासक थे - का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार उत्तरी अफ्रीका के शासक टॉलेमी (ई.पू. 282-40) का भी उल्लेख है । इन समकालीन राजाओं की तिथियों के आधार पर अशोक के राज्यारोहण का वर्ष ई.पू. 270 निकाला गया है। किन्तः इस प्रकार तिथि निर्धारण में गलत पाठ पढ़े जाने से भयंकर भूल भी हो सकती है, जैसे 'मौर्य संवत्' की कल्पना गलत पाठ पढ़ने से ही की गई। अन्यथा मौर्य संवत् जैसी कोई बात नहीं है। अंतरंग साक्ष्य
अत: कहा जा सकता है कि 'काल-संकेत', समकालिकता एवं ज्ञात संवत् की पद्धति से संतोषजनक रूप में नियमित संवत् में काल-निर्णय किया जा सकता है। काल-निर्णय की एक और पद्धति भी हो सकती है अन्तरंग साक्ष्य। जब किसी रचना में कोई काल-संकेत नहीं दिया गया हो तब यह अन्तरंग साक्ष्य की पद्धति काम में ली जा सकती है। इस पद्धति में रचना के वर्ण्य-विषय में मिलनेवाले उन संकेतों का या उल्लेखों का सहारा लेना होता है, जिनमें काल की किसी भी प्रकार से संकेत करने की क्षमता हो। उदाहरण के लिए पाणिनि की अष्टाध्यायी को ले सकते हैं । इस रचना में कहीं भी काल-संकेत नहीं प्राप्त होता। अतः अष्टाध्यायी में प्राप्त-सामग्री के आधार पर समय का अनुमान विद्वानों ने किया है। यही कारण है कि इन विद्वानों के अनुमान भी परस्पर अत्यधिक भिन्न हैं। एक विद्वान उन्हें 400 ई.पू. मानते हैं। गोल्डस्टुकर के अनुसार पाणिनि बुद्ध से परिचित नहीं थे। अतः उनका समय यास्क के बाद और बुद्ध से पूर्व मानते हैं । डॉ. आर. जी. भण्डारकर के अनुसार पाणिनि दक्षिणी भारत
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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