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लगा था। प्रारंभ में इसे शक नृपति के राज्याभिषेक का (राज्य वर्ष) संवत् माना गया। इसके बाद इसी शक संवत् के साथ शालिवाहन शब्द का प्रयोग होने लगा
और इसे 'शाके शालिवाहन' कहा जाने लगा। इस प्रकार दक्षिण तथा उत्तर में नियमित संवत् के रूप में शक-संवत् लोकप्रिय हो गया। यहीं से नियमित संवत्' देने की दूसरी पद्धति द्वारा काल-संकेत मिलता है।
दूसरी पद्धति द्वारा प्राप्त नियमित संवत् के काल-संकेत प्राप्त होने के बावजूद समस्या यह उठती है कि उसे उस कालक्रम में और वर्तमान ऐतिहासिक काल-संकेत की परम्परा में किस प्रकार यथास्थान बिठाया जाये। उदाहरण के लिए अशोक से पूर्व के बड़ली ग्राम (अजमेर) से प्राप्त जैन शिलालेख में 'वीराय भगवत' एवं 'चतुराशिबसे' मिलता है। जिसका अभिप्राय यह है कि भगवान महावीर के निर्वाण के 84वें वर्ष में। यह एक प्रसिद्ध घटना है और जैनधर्मानुयायी इसे ही 'महावीर संवत्' या 'वीर संवत्' मानते हैं। सम्पूर्ण जैनसाहित्य में इसी निर्वाण-संवत् का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर जैन आचार्य मेरूतुङ्ग सूरि ने 'विचार श्रेणी' में कहा है कि 'महावीर संवत्' और विक्रम संवत् में 470 वर्षों का अन्तर है। इस प्रकार महावीर संवत् का प्रारम्भ 527 ई.पू. में हुआ, क्योंकि विक्रम संवत् का प्रारंभ 57 ई.पू. में होता है। 470 वर्ष का अन्तर होने से 57+470=527 ई.पू. महावीर का निर्वाण संवत् हुआ - इस तरीके से तीन संवतों का आपसी समन्वय प्राप्त हो जाता है-विक्रम संवत् का 'वीर निर्वाण संवत्' से और दोनों का परस्पर 'ई. सन्' से। अब यदि 'वीर निर्वाण' के वर्ष का ज्ञान संदेहास्पद हो तो इस प्रकार का 'काल-संकेत' किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकेगा। किन्तु सर्वजन मान्य होने से 'शक-संवत्' नियमित हो गया।
1. डॉ. चन्द्रकान्त बाली का कहना है कि "महावीर स्वामी के कालबोधक तीन 'सूत्र'
उत्तरोत्तर संवत्सर-परम्परा में इस प्रकार आबद्ध हैं कि उनमें कहीं भी शिथिलता दृष्टिगत नहीं होती। यथा - (क) वर्द्धमान संवत् + विक्रम संवत् + शक संवत्; (ख) वर्द्धमान संवत् + शक संवत् + विक्रम संवत् ; (ग) वर्द्धमान संवत् + शक संवत् + चालुक्य संवत् । इस श्रृंखला में 'शक संवत्' का अस्तित्व चमत्कारपूर्ण है । सन् 78 ईसवी से चलने वाले 'शक संवत्' को विक्रम-पूर्ववर्ती अथवा चालुक्य-पूर्ववर्ती बताना या सिद्ध करना नितरां असंभव है । विक्रम-पूर्व तथा चालुक्य-पूर्व के 'शक-संवत्' की सत्ता 622 ईसवी-पूर्व मानने से ही 'वर्द्धमान-संवत्' का अनुसंधान सफल एवं सप्रमाण संभव है।"
- वर्द्धमान संवत्, लेख-परिषद् पत्रिका, पटना, वर्ष 20, अंक 4, जन. 1981
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काल-निर्णय
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