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अध्याय 6
काल-निर्णय
1. पाण्डुलिपि की लिपि के उद्घाटन के बाद काल-निर्णय की समस्या आती है। वस्तुत: जब कोई ‘पाण्डुलिपि' प्राप्त होती है तो उसे काल की दृष्टि से दो वर्गों में बाँटा जाता है। प्रथम वर्ग में वह पाण्डुलिपि आती है जिसमें 'कालसंकेत' दिया होता है और दूसरे वर्ग में वह आती है जिसमें 'काल-संकेत' का कोई सत्र नहीं होता। कभी-कभी तो काल-संकेत' वाली पाण्डलिपियाँ'कालनिर्णय' के लिए समस्या बन जाती हैं, जैसे – 'पृथ्वीराजरासो'। इस कृति में काल-संकेत होने के बावजूद अनेक ऐतिहासिक विवाद उठ खड़े हुए हैं। 2. काल-संकेत के प्रकार
काल-निर्धारण या निर्णय के लिए सामान्यत: तीन पद्धतियाँ काम में ली जाती हैं - (1) राज्यारोहण के काल के आधार पर, (2) नियमित संवत् के उल्लेख से, (3) समकालीन संदर्भो के आधार पर। प्रथम पद्धति का निर्वाह हमें अशोक के शिलालेखों में मिलता है। जैसे -
द्वादसवसामि सितेन मया इदं आज्ञापितं' अर्थात् अशोक कहते हैं कि मैंने यह लेख अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में प्रकाशित करवाया। इसी प्रकार अन्य शिलालेखों में भी राज्याभिषेक के आठवें/दसवें वर्ष में लिखवाया आदि मिलता है। इस प्रकार या पद्धति का 'राज्यवर्ष' का नाम दे सकते हैं। इसमें अभिलेख लिखाने वाला राजा काल1. सम्राट अशोक के अभिलेखों से पूर्व का एक अभिलेख अजमेर के वास बड़ली ग्राम
से प्राप्त हुआ है। यह लेख आजकल अजमेर के अजायबघर में रखा हआ है। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे अतिविशिष्ट लेख माना है। इसमें दो पंक्तियाँ हैं; जिनमें क्रमशः 'वीराय भगवतं' तथा 'चतुरासीति बस' लिखा है। यह वीर या महावीर के निर्वाण के चौरासीवें वर्ष में लिखा गया। इससे जैन मतावलम्बी 'वीर-निर्वाण' दिवस से काल-गणना करते हैं।
काल-निर्णय
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