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क्योंकि उसी का अनुमान सम्पूर्ण ग्रंथ के अध्ययन के उपरान्त लगाया जा सकता है। सम्पूर्ण ग्रंथ का पूर्ण अध्ययन करने से शब्दावली एवं वाक्यपद्धति का भी पाठालोचक को इतना ज्ञान हो जाता है कि वह त्रुटित या संदिग्ध स्थलों की पूर्ति प्रायः उपयुक्त शब्द या वाक्य से कर सकता है। इस प्रकार के अनुमानित शब्द को कोष्ठक ( ) में बन्द कर देना चाहिए। ताकि भविष्य में पाठक को इन कोष्ठकों से यह पता चल सके कि यह शब्द या वाक्य सम्पादक के सुझाव हैं।
इस प्रकार तैयार पाठ में सांख्यिकी (Statistics) का भी उपयोग हो सकता है। एक ही शब्द के कई रूप मिलने पर, कौनसा प्रामाणिक हो सकता है, का ज्ञान सांख्यिकी से आसानी से हो जाता है। सांख्यिकी से ऐसे शब्दों के विविध रूपों की आवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं। सम्पादित किये जाने वाले ग्रंथ की भाषा का व्याकरण भी तैयार करना चाहिए। यदि रचनाकार की कोई अन्य रचना भी मिलती हो तो दोनों की भाषा की तुलना से ग्रंथ को और भी अधिक प्रामाणिक बना सकते हैं। ऐसे ग्रंथों की शब्दानुक्रमणिका देना भी उपयुक्त रहता है।
आजकल पाठानुसंधान (Textual Criticism), भाषाविज्ञान (Linguistics) का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है । अत: पाठानुसंधान के सिद्धान्त भी वैज्ञानिक हो गये हैं। पाठ-सम्पादन की सामान्य पद्धतियों की विश्वसनीयता आजकल समाप्त हो गई है। 13. मूलपाठ-निर्माण
मूलपाठ का प्रामाणिक पुनर्निर्माण भी पाठालोचन का ही एक पक्ष है। यह बहुत गम्भीर विषय है। उदाहरण के लिए 'पंचतंत्र' का पाठ पुनर्निर्माण लें। फ्रेंकलिन ऐजरटन ने पंचतंत्र के पाठ का पुनर्निर्माण किया था। उन्होंने अपने The Panchatantra Reconstruction, vol. II पृ. 48 में विविध क्षेत्रों से प्राप्त 'पंचतंत्र' के विविध रूपों को लेकर उनमें पाये जाने वाले अन्तरों एवं भेदों को दृष्टि में रखकर उसके 'मूलरूप' का निर्माण करने का प्रयत्न किया है। पंचतंत्र के विविध रूपान्तरों में कहानियों में आगम, लोप और विपर्यय मिलते हैं । प्रश्न उठता है कि पंचतंत्र का मूलरूप क्या रहा होगा और उसमें कौन-कौन सी कहानियाँ किस क्रम से रही होंगी। अत: पंचतंत्र के मूलरूप के निर्माण करने की समस्या भी पाठालोचन का ही विषय है। अधिक विस्तार से जानने के लिए डॉ. सत्येन्द्र कृत 'पाण्डुलिपिविज्ञान' को देखिए।
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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