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प्रकार सर्वाधिक प्रामाणिक पाठ वाली प्रति निर्धारित कर लेने पर उसके पाठ को आधार मान सकते हैं, किन्तु प्रामाणिक पाठ नहीं। क्योंकि प्रामाणिक पाठ के लिए विविध पाठान्तरों की तुलना अपेक्षित है। तुलना द्वारा 'शब्द' और 'चरण' के रूप को निर्धारित करना होगा। इस प्रकार पूर्णतः प्रामाणिक पाठ बनाने के लिए समस्त बाह्य एवं अंतरंग सम्भावनाओं के साक्ष्य से ही पाठ निर्णय करना चाहिए। 11. बाह्य एवं अन्तरंग सम्भावनाएँ
मूलपाठ प्रामाणिक है या नहीं, इसकी जानकारी बाह्य और अन्तरंग संभावनाओं से की जाती है। मूलपाठ के संदिग्ध स्थलों के शब्दों या चरणों की प्रामाणिकता के लिए जैसे अंतरंग साक्ष्य मिलता है वैसे ही शब्द या चरणों की ग्रंथ के अन्दर आवृत्ति के द्वारा अन्यत्र कहाँ और किस-किस स्थान और रूप में प्रयोग मिलता? इस प्रयोग की आवृत्ति सांख्यिकी प्रामाणिकता को पुष्ट करती है। इसी प्रकार 'अर्थ' की समीचीनता की उद्भावना की प्रामाणिकता को पुष्ट करती है। इस संबंध में डॉ. सत्येन्द्र ने 'पाण्डुलिपिविज्ञान' में विस्तार से चर्चा की है। ___ पाठालोचन में भ्रम के कारण या संशोधन-शास्त्र के नियमों की पालना में असावधानी के कारण इच्छित पाठ और अर्थ नहीं मिल पाता है। इसलिए पाठ की प्रामाणिकता की दृष्टि से शब्दों को तत्कालीन रूप और अर्थों से भी देखना आवश्यक है। उदाहरण के लिए जायसी के 'पदमावत' के किसी शब्द के अर्थ की पुष्टि 'आइने अकबरी' में आये शब्दों से की जा सकती है। क्योंकि 'आइने अकबरी' में अनेक शब्द अपने तत्कालीन रूप में प्राप्त होते हैं, जो 'पदमावत' में प्रयुक्त हुए हैं। इसी प्रकार अन्य समकालीन कवियों की शब्दावली अथवा तत्कालीन नामावलियों से 'शब्दों' की पुष्टि की जा सकती है।
पाठ-सिद्धान्त निश्चित हो जाने के बाद, एक पृष्ठ पर एक छन्द लिखना चाहिए और उसके नीचे जितने भी भिन्न पाठ मिलते हों वे सभी दे दिये जाने चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि पाठ-भेद किस-किस प्रति के क्या-क्या हैं, इसका भी संकेत देना चाहिए।
डॉ. सत्येन्द्र कहते हैं कि "प्रामाणिक पाठ निर्धारित करने में बहुत सी सामग्री 'प्रक्षेप' के रूप में अलग निकल जायेगी। उस सामग्री को ग्रंथ में 1. बीसलदेव रास : डॉ. एम.पी. गुप्ता, भूमिका, पृ. 47
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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