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प्राप्त प्रति का संकेत 'पु.' रखा जा सकता है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इस पर अधिक विचार किया है ।
इन प्रणालियों के अतिरिक्त कभी-कभी मूल पुष्पिका के नष्ट हो जाने पर ग्रंथ - स्वामी किसी अन्य ग्रंथ की पुष्पिका उसमें जोड़ देता है, तो उस प्रतिका संकेत उस ग्रंथ स्वामी के नाम पर बनाया जा सकता है ।
8. मूलपाठ - प्रतियाँ
प्राप्त ग्रंथों के संकेत चिह्न निर्धारित करने के बाद उनके एक-एक छंद को अलग-अलग कागज पर लिख लेना चाहिए । प्रत्येक छंद की प्रत्येक पंक्ति के क्रमांक भी दे देने चाहिए साथ ही छंद का क्रमांक भी दें। जैसे
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पंडियउ पहुतउ सातमई मास (1) देव कह थान करी अरदास (2) तपीय सन्यासीय तप करह (3)
9. मूलपाठ : तुलना
मूलपाठ की प्रतियाँ तैयार होने पर प्रत्येक छन्द की सभी प्रतियों के रूपों की तुलना करनी चाहिए । यह देखना चाहिए कि प्रत्येक छंद समान चरणों के हैं या असमान चरणों के, प्रत्येक चरण में समान शब्द हैं या भिन्न-भिन्न, प्रत्येक चरण में वर्तनी - संबंधी समानता है या असमानता आदि । इस तरह चरण प्रति चरण, शब्द प्रति शब्द तुलना करने के उपरान्त प्रत्येक शब्द के पाठों के अन्तर की सूची बनानी चाहिए । इसी प्रकार प्रत्येक आगम और लोप की सूची बनाली जानी चाहिए | पिंगल शास्त्र की दृष्टि से भी प्रत्येक चरण की संगति देखनी चाहिए |
10. तुलना के आधार
उपर्युक्त तुलना के आधारों पर मूलपाठ की तीन 'संबंधों' की दृष्टि से तुलना की जानी चाहिए - (1) प्रतिलिपि - संबंध ( 2 ) प्रक्षेप - संबंध (3) पाठान्तरसंबंध । इन तीन प्रकार के संबंधों की दृष्टि से 'वंशवृक्ष' तैयार करना चाहिए । इस
1. पाण्डुलिपिविज्ञान : डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 227-232
2. बीसलदेव रास : सम्पा., डॉ. एम. पी. गुप्ता, पृ. 5
3. पाण्डुलिपिविज्ञान : डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 233
पाठालोचन
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