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जायेगा। क्योंकि प्रत्येक पाण्डुलिपिकर्ता अपनी-अपनी लिपियों में कुछ नवीनता या वैशिष्ट्य जोड़ता ही है। यह प्रतिलिपि सामान्य सृजन की प्रक्रिया है। 4. मूलपाठेतर प्रतिलिपि और पाठालोचन
वस्तुत: पाठालोचन की आवश्यकता तब होती है जब हस्तलेखागार में मूलपाठ की चौथी पीढ़ी की दूसरी शाखा की 3 प्रतियों में से प्रथम प्रति की पाँचवीं प्रतिलिपि की दूसरी प्रति उपलब्ध होती है। इसे निम्नप्रकार समझा जा सकता है - प्रथम पीढ़ी - 1 मूलपाठ द्वितीय पीढ़ी - 2 तृतीय पीढ़ी - 3 चतुर्थ पीढ़ी - 4
प्रथम शाखा
द्वितीय शाखा
तृतीय शाखा
3
दूसरी शाखा तीसरी प्रति
1
| 3 तीसरी प्रति
प्रथम प्रति
प्रथम
प्रथम
द्वितीय
पाँचवीं प्रति
1
2
3
4
5
1
2 दूसरी प्रति
3
क्षेपक : जिस प्रकार पाण्डुलिपिकर्ता के प्रमाद के कारण पाण्डुलिपि में वर्तनी एवं शब्द-भेदों संबंधी विकार उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार क्षेपक, प्रक्षिप्तांश अथवा छूट के कारण भी विकार आ जाता है। कहा जाता है कि अपने मूल-रूप में 'महाभारत' और 'पृथ्वीराजरासो लघु ही थे, किन्तु कालान्तर में क्षेपक जुड़ते-जुड़ते वे महाकाय-महाकाव्य बन गये। इसका पाठालोचन के विद्वानों को बड़ी सावधानी से वैज्ञानिक पद्धति से अनुसंधान करना चाहिए।
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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