________________
कभी-कभी लिपिकर्ता अक्षर ही नहीं 'शब्द' भी प्रमादवश छोड़ देता है। तब दूसरा लिपिक उसकी कमी को अनुभव करता है तो वह अपने अनुमान से ही कोई भी शब्द लिख देता है । इस प्रकार पाठ में विकारों का सिलसिला चलता रहता है। 3. पाण्डुलिपि : वंश-वृक्ष
पाण्डुलिपि के लिपिकर्ता की लेखन-कला - किस अक्षर को वह कैसे लिखता है - के आधार पर उसकी लेखन-शैली का पता लगता है। जैसे वह 'अ' या 'अ' लिखता है, 'ष' या 'ख' लिखता, शिरोरेखा लगाता है या नहीं, भ और म में, प और य में अन्तर करता है या नहीं। इस प्रकार प्रत्येक लिपिकर्ता की प्रति में अपनी-अपनी विशेषताएँ होने के कारण वे दूसरे लिपिकर्ता से अवश्य भिन्न होंगी। अत: वंशवृक्ष में प्रथम स्थानीय संतानें ही तीन लिपिकों के माध्यम से तीन वर्गों में विभाजित हो जायेंगी। इन प्रथम-स्थानीय प्रतियों से फिर अन्य लिपिकर्ता प्रतिलिपि तैयार करेंगे और एक के बाद दूसरी से प्रतिलिपियाँ तैयार होती चली जायेंगी। इसे निम्नलिखित वंश-वृक्ष' से समझा जा सकता है। इस वंशवृक्ष में 'क' के द्वारा तीन प्रतियाँ तैयार की गई थीं। बाद में उसकी
मूलपाठ
लिपिकार 'ग'
लिपिकार 'क' लिपिकार 'ख' प्रथम स्थानीय प्रतिलिपियाँ , - 1 2 3 1
2
1
2
3
4
2 1 1 2 3 4 5 1 1 2 2 नम्बर की प्रति से 2 प्रतिलिपियाँ एवं 3 नम्बर की प्रति से 1 प्रतिलिपि तैयार हुई। 'ख' ने दो प्रतियाँ लिखी थीं, किन्तु इनसे कोई प्रतिलिपि तैयार नहीं की गई। इस प्रकार इस प्रति का वंश यहीं समाप्त हो गया। 'ग' ने चार प्रतियाँ तैयार की थीं; जिनमें आगे चलकर प्रथम से 5, द्वितीय से 1, तृतीय से 2 प्रतिलिपियाँ तैयार की गईं किन्तु चौथी का वंश नहीं चला। इस प्रकार यह वंशवृक्ष बढ़ता 1. पाण्डुलिपिविज्ञान; डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 220
पाठालोचन
145
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org