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उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में एक ने 'ससारा' पढ़ा है तो दूसरे ने 'पसारा' पढ़ा है। (2) प्रमादवश
मूल लेखक ने जो लिखा है उसे पढ़कर ही लिपिक लिखता है, लेकिन अज्ञान और प्रमादवश पढ़ने एवं लिखने में कुछ का कुछ परिणाम हो जाता है। 'प्रमाद दृष्टिकोण' के कारण ही ऊपर 'ससारा' को 'पसारा' पढ़ा गया है। 'लोपक प्रमाद' के कारण लिपिक मूल पाण्डुलिपि के किसी शब्द या वाक्य के अंश को ही छोड़ देता है। (3) छूट-भूल एवं आगम के कारण
यदि लिपिक स्थिर चित्त होकर नहीं लिख रहा है तो वह अपने मन में तो पूरा शब्द बोलता है, परन्तु लिखते समय उससे कोई न कोई वर्ण छूट जाता है। यह भूलवश ही होता है, जैसे - सरवर को सवर लिखना। लेखक 'र' लिखना ही भूल जाता है। बिन्दु, चन्द्रबिन्दु एवं लघु-गुरु मात्राओं की भूल तो होती ही रहती है। कभी-कभी किसी अक्षर का आगम तो कभी 'लोप' और 'विपर्यय' भी हो जाता है। कभी-कभी एक ही अक्षर या शब्द दो बार भी लिखे जाते हैं।
कभी-कभी लिपिक द्वारा भ्रमवश अपने को लेखक से अधिक योग्य समझकर या किसी शब्द का अर्थ ठीक नहीं समझ पाने के कारण कोई अन्यार्थक शब्द या वाक्य-समूह रख देता है। इस संबंध में डॉ. टेसीटरी कहते हैं - "In the peculiar conditions under which bardic works are handed down, subject to every sort of alterations by the copyists who generaly are bards themselves and often think themselves authorized to modify or ... improve any text they copy to suit their tastes or ignorance as the case may be."! उदाहरण के लिए 'छरहटा' शब्द की जगह 'चिरहटा' या 'चिरहटा' को 'छरहटा' लिखना। इसी तरह 'आखत ले' को 'आख तले' करने और बाद में 'आँख तले' करने में भी है। ऐसे लिपिकर्ता प्रमादवश मूल पाठ में गम्भीर विकार उत्पन्न कर देते हैं। 1. वचनिका, भूमिका, पृ. 9
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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