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से जितनी भी प्रतिलिपियाँ तैयार होती हैं वे सभी मूलपाठ के वंश की प्रथम स्थानीय संतानें मानी जा सकती हैं। मान लीजिए मूलपाठ से तीन लिपिकों ने कुछ प्रतिलिपियाँ निम्न प्रकार से तैयार की -
प्रथम ने 3 प्रतियाँ, दूसरे ने 2 प्रतियाँ, तीसरे ने चार प्रतियाँ आदि।
इन प्रतियों के तैयार करने में प्रत्येक लिपिक ने अपनी ही पद्धति से उन्हें तैयार किया है। यहाँ तक कि कभी-कभी एक ही लिपिक द्वारा तैयार दो प्रतियों में भी भिन्नता मिल जाती है। पूर्वकाल में जब छापाखाने नहीं थे तब ग्रंथों को लिपिक द्वारा लिखवा कर पढनेवालों को दिया जाता था। इसका परिणाम यह होता था कि लिपिक की समस्त अयोग्यताओं के कारण पाठ अशुद्ध हो जाता था। किसी का सुलेख अच्छा नहीं होता था, कोई ग्रंथ के विषय से अपरिचित रहता था, किसी का शब्दकोष सीमित होता था। फलतः पाण्डुलिपि में उन कमियों को देखा जा सकता है। अज्ञानता के कारण भी पाण्डुलिपि में अनेक विकार आ जाते थे, जिनमें प्रधान विकार 'शब्द' संबंधी रहता था। इसके मूलतः तीन कारण थे -
(1) काल्पनिक : प्रायः 'राम' को 'राय' या 'राय' को 'राम' पढ़ना असम्भव नहीं है। एक साथ लिखे 'र' और 'व' (रव) को ख पढ़ा जा सकता है। इस प्रकार किंचित् मात्र भ्रम के कारण लिपिक कुछ का कुछ लिख सकता है। भ्रम की यह परम्परा आगे चलकर विकराल रूप धारण कर लेती है । फलतः काव्य के अर्थ ही कुछ के कुछ हो जाते हैं। यथा -
मूल लेखक ने लिखा - राम प्रथम लिपिक ने पढ़ा - राय दूसरे लिपिक ने पढ़ा - राच तीसरे लिपिक ने पढ़ा - सच आदि।
इस प्रकार एक ही शब्द भ्रमवश विकार को प्राप्त कर आगे वालों के लिए विकारों की श्रृंखला बना देते हैं। यह विकार का एक काल्पनिक इतिहास है। यथार्थ उदाहरण के रूप में देखिए -
'होइ लगा जेंवनार ससारा' - पझावत : मा. प्र. गुप्त। 'होइ लगा जेंवनार पसारा' - पझावत : रा.च. शुक्ल।
पाठालोचन
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