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से उसे अलग पढ़ा जा सकता था तथा दूसरे लिपिकार के राजस्थानी होने की पुष्टि भी होती थी।
___ङ और ड़ - ये दो पृथक् ध्वनियाँ हैं । ड़ का प्रयोग कभी आदि में नहीं किया जा सकता । चन्द्रबिन्दु' ' का प्रयोग कहीं भी नहीं होता। ऐसा राजस्थानी पर गुजराती प्रभाव के कारण होता है । क्ष को ष्य लिखा जाता है; किन्तु ऐसा केवल संस्कृत शब्दों के अलावा राजस्थानी में नहीं है। बारहखड़ियों के अतिरिक्त ङ और ञ का लेखन में प्रयोग नहीं होता। ज्ञ सदैव ग्य करके लिखा जाता है।
विराम चिह्न : (1) कोमा (,) का प्रयोग नहीं होता, केवल पूर्णविराम का ही होता है। (2) पूर्णविराम या तो खड़ी पाई (।) की तरह लिखा जाता है या विसर्ग की तरह (:) या कुछ स्थान छोड़ दिया जाता है।
विराम-चिह्न रूप में विसर्ग अक्षर से ठीक जुड़ता हुआ न लगाकर कुछ जगह छोड़कर लगाया जाता है।
छूटे हुए अक्षर : छूटे हुए अक्षर, मात्राएँ आदि हाशिए में दाएँ-बाएँ लिखी जाती हैं। यदि अक्षर आधे से अधिक में छूट गया है तो दाएँ और आधे से पूर्व में छूटा है तो बाएँ ओर लिखा जाता है इसके लिए '' अथवा 'L' चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार यदि आधी या पूरी पंक्ति छूट गई है तो वह प्रायः ऊपर के स्थान पर या नीचे के स्थान पर लिखी जाती है। मूल पाठ में दो स्थानों पर .' चिह्न लगाकर ऊपर या नीचे छूटी हुई पंक्ति लिखी जाती है।
कभी-कभी आधा शब्द लिखने के बाद आधा शब्द छूट गया हो तो लिपिकार हाशिए में एक चिह्न (S) बना देता है, इसको आ (T) या पूर्णविराम समझना चाहिए। यह सदा दाएँ हाशिए में ही होगा। जैसे - एक शब्द 'रामायण' को लें। इस शब्द का 'रामा' तक तो पूर्व पंक्ति में लिखा गया, क्योंकि बाद में हाशिया आ गया था। इसको यों लिखा जाएगा - रामा/। (हाशिया) यण। भूल से इस 'यण' को अकारण नहीं समझना चाहिए।
इस प्रकार पाण्डुलिपियों में उपर्युक्त अनेक प्रकार की भूलें पाई जाती हैं।
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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