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15. दैवी या काल्पनिक लिपियाँ
(1) देव लिपि (2) महोरग लिपि (उर्ग-सरों की लिपि) (3) वायुमरु लिपि (हवाओं की लिपि) (4) अन्तरिक्ष-देव लिपि (आकाश के देवताओं की लिपि)
अन्तिम, दैवी या काल्पनिक लिपियों के अलावा शेष सभी भेद भारत की विविध भागों की लिपियों में, पड़ोसी देशों की लिपियों में, प्रादेशिक लिपियों या अन्य चित्ररेखान्वयी या आलंकारिक लेखन आदि में मिल जाती हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की लिपि विमिश्रित कहलाती है, जिसमें संक्रमणसूचक चित्र रेखक, भावचित्र रेखिक तथा ध्वनि चिह्नक (अक्षर) रूप मिले होते हैं।
किन्तु अन्यत्र 18 लिपियों का उल्लेख कई ग्रंथों में हुआ है । जैनों के वर्णक समुच्चय', पन्नवणा सूत्र, जैन समवायांग सूत्र, विशेषावश्यक सूत्र नामक ग्रंथों में 18 लिपियों का उल्लेख हुआ है।'
डॉ. बाबूराम सक्सेना ने भारत की समस्त लिपियों को ई.पू. 500 के निकट से ई. 350 तक के लेखों में व्यवहत लिपि को ब्राह्मी लिपि कहा है। इसके बाद इस लिपि के लिखने में दो प्रवाह दिखाई देते हैं, उत्तरी और दक्खिनी। उत्तरी शैली का प्रचार प्रायः विन्ध्यपर्वत के उत्तर में और दक्खिनी का उसके दक्षिण में रहा। उत्तरी से निम्नलिखित लिपियाँ विकसित हुईं -
(1) गुप्तलिपि - चौथी-पाँचवीं शदी में प्रचारित, गुप्तवंशी राजाओं के लेखों की लिपि।
(2) कुटिललिपि - गुप्त लिपि से निकली छठी से नवीं सदी ई. तक प्रचारित लिपि। इसके अक्षरों (मात्राओं) की आकृति कुटिल होने से इसे कुटिल लिपि कहते हैं।
(3) नागरीलिपि - आठवीं से 16वीं सदी के पिछले भाग तक विकसित नागरी लिपि की पूर्वी शाखा से बंगला लिपि का विकास हुआ। इसी से ही कैथी, 1. Indian Palaeography : R.B. Pandey, P. 25-28 2. वही, पृ. 29 3. पाण्डुलिपिविज्ञान : डॉ. सत्येन्द्र, पृ. 203-4
पाण्डुलिपि की लिपि : समस्या और समाधान
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