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________________ किसी भी पाण्डुलिपि वैज्ञानिक को प्रथम दृष्टया लिपि के लिखने के प्रकार को देख-समझकर ही उस लिपि के संबंध में विचार करना चाहिए। 3. लिपि का इतिहास ____ पाण्डुलिपिविज्ञान की दृष्टि से 'लिपि' की खोजबीन में भारतेतर अनेक विद्वानों का सहयोग रहा है । अनेक लिपि वैज्ञानिकों एवं इतिहासकारों के प्रयासों से ही विश्व की प्राचीन लिपियों का इतिहास प्रकाश में आया। 19वीं शती के प्रारंभ से ही अज्ञात लिपियों के पढ़ने के प्रयास होते रहे हैं। उनके परिणामस्वरूप विश्व की अनेक अज्ञात लिपियों का उद्घाटन हो सका है। चीन और मिश्र के अलावा लिपि का विकास प्राचीनकाल में मेसोपोटैमिया में सुमेरी जाति द्वारा किया गया; क्योंकि यहाँ भी भावव्यक्तीकरण चित्रों द्वारा ही पाया गया है। लेकिन जहाँ मिश्र में अधिकतर ये चित्र पत्थरों पर खुदे हुए मिले हैं, मेसोपोटेमिया के चित्र नरम ईंटों पर कीलों से खोदे जाते थे। तल की नर्मी के कारण केवल लाइनें खिंच सकती थीं, गोलाई आदि के प्रदर्शन का कोई साधन न था। जैसे मछली का चित्र केवल 3-4 पंक्तियों से खींचा जा सकता था। इस तरह ये चित्र प्रारंभ से ही संकेत चिह्न हो गये और बाद में भावों के व्यक्त करने वाले । सामी पड़ोसियों ने इन्हें अक्षरात्मक बना दिया। बाद में ईरान में भी इनका प्रयोग शुरू हो गया, जिसका एक रूप हमें दारा के प्राचीन कीलाक्षर लेखों में मिलता है। सामी लिपि में केवल 22 वर्ण थे। यदि देखा जाये तो चित्रलिपि का आधार वाणी, बोली या भाषा नहीं, वस्तु बिम्ब ही है । वस्तु बिम्ब को रेखाओं में अनुकूल करने से चित्र बनता है । आदिम अवस्था में ये रेखाचित्र स्थूल प्रतीक के रूप में थे। उसने देखा कि मनुष्य के सबसे ऊपर गोल सिर है, अतएव उसकी अनुकृति के लिए उसकी दृष्टि से चिह्न एक वृत्त 0 होगा। यह सिर गर्दन से जुड़ा हुआ है, गर्दन कंधे से जुड़ी है। यह उसे एक छोटी सीधी खड़ी रेखा सी लगी। कंधा भी उसे पड़ी सीधी रेखा के समान दिखाई दिया '--'। इसके दोनों छोरों पर दो हाथ जो कुहनी से मुड़ सकते हैं और छोर पर पाँच अँगुलियाँ अर्थात् प्रस्तुत चित्र। धड को उसने दो रेखाओं से बने डमरू के रूप V 7 में समझा क्योंकि कमर पतली, वक्ष और उरु चौड़े = धड़। कभी-कभी धड़ 112 सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002693
Book TitleSamanya Pandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirprasad Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2003
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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