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अध्याय 4
पाण्डुलिपि की लिपि : समस्या और समाधान
1. पाण्डुलिपिविज्ञान और लिपि
पाण्डुलिपिविज्ञान में लिपि का महत्व सर्वविदित है । लिपि के कारण ही कोई लेख पाण्डुलिपि कहलाता है। लिपि के माध्यम से ही किसी भाषा को चिह्नों में बाँधकर, उसे दृश्य या पाठ्य बना पाते हैं । इसी कारण हजारों वर्षों पूर्व प्रचलित भाषाएँ आज भी अपने पूर्व रूप में सुरक्षित हैं । स्थान-भेद से विश्व में अनेक भाषाएँ एवं लिपियाँ पाई जाती हैं। पाण्डुलिपिविज्ञान के विद्यार्थी को अनेक भाषाओं और लिपियों से परिचित होना आवश्यक नहीं तो अपेक्षित अवश्य है। डॉ. सत्येन्द्र कहते हैं - "वस्तुतः विशिष्ट लिपि का ज्ञान उतना आवश्यक नहीं जितना उस वैज्ञानिक विधि का ज्ञान अपेक्षित है जिससे किसी भी लिपि की प्रकृति और प्रवृत्ति का पता चलता है । इस ज्ञान से हम विशिष्ट लिपि की प्रकृति
और प्रवृत्ति जानकर अध्येता के लिए अपेक्षित पाण्डुलिपि का अंतरंग परिचय दे सकते हैं। अत: लिपि का महत्त्व निर्विवाद है। फिर वह प्राचीन हो या अर्वाचीन। ___ इतना ही नहीं "अपौरुषेय श्रुति को छोड़कर अन्य सभी शब्दों को सुनने के लिए वक्ता और श्रोता के समकालत्व और समदेत्व की अपेक्षा होती है। ऐसी परिस्थिति में अपनी बात और भावना को यदि उत्तरकालीन या भिन्नदेशस्थ मनुष्य तक पहुँचाना अभीष्ट हो तो किसी अन्य उपाय का अवलम्बन करना चाहिए। मनुष्य अपने समय की विशेष घटनाओं की स्मृति छोड़ जाना चाहता है। उनका उल्लेख वह अपने पुत्र-पौत्रों से कर दे और वे अपने नाती-पोतों से, तो परम्परा 1. पाण्डुलिपिविज्ञान, पृ. 174
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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