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बनाने के उद्योग प्रचलित थे। इन जगहों पर कश्मीरी, मुगलिया, अरवाल, साहबखानी, शणिया, खंभाती, दौलताबादी एवं अहमदाबादी आदि अनेक प्रकार एवं रंग के कागज निर्मित होते थे। इन कागजों पर लिखित प्राचीन ग्रंथ विविध ग्रंथागारों में सुरक्षित हैं। ___ भारत में वि.सं. 1181 (सन् 1124 ई.) की भागवतपुराण की कागज पर लिखित प्राचीन प्रति वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में सरस्वती भवन पुस्तकालय में सुरक्षित है। इसके बाद वि.सं. 1204 (1146 ई.) में लिखित आनन्दवर्धन कृत ध्वन्यालोक की प्राचीनतम टीका राजस्थान, प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में है। जीर्ण-शीर्ण इस ग्रंथ की फोटो प्रति सुरक्षित है। इसी प्रकार वि.सं. 1326 की पझ प्रभसूरि रचित 'भुवनदीपक' पर उन्हीं के शिष्य सिंह तिलक कृत वृत्ति भी 'पोथीखाना' जयपुर में सुरक्षित है। और भी अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ राजस्थान-गुजरात के जैन ग्रंथागारों, जिनालयों एवं व्यक्तिगत पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं । इसके बाद तो हजारों पाण्डुलिपियाँ देशी कागज पर तैयार होने लगीं। वि. सं. 1609 (सन् 1552 ई.) की 'श्रीभगवद्गीता संबोधि टीका' दयालदास द्वारा लिपिकृत श्रीराम भवन पुस्तकालय, कोटपूतली (जयपुर) में भी सुरक्षित है।
पाण्डुलिपियों के अन्य प्रकार 1. आकार के आधार पर
मुनि पुण्यविजयजी ने आकार के आधार पर पाण्डुलिपियों के 5 प्रकार बताए हैं – (क) गण्डी, (ख) कच्छपी, (ग) मुष्टी, (घ) सम्पुट फलक, (ङ) छेदपाटी (छिवाड़ी या सृपाटिका)। इनमें प्रत्येक का विवरण निम्न प्रकार है :
(क) गण्डी : ताड़पत्रीय आकार के कागजों या ताड़पत्र पर लिखी हुई ऐसी पाण्डुलिपि जो मोटाई और चौड़ाई में समान होते हुए लम्बे आकार की होती है, गण्डी कहलाती है। 1. शोध-पत्रिका, वर्ष 32, अंक 2, अप्रेल-जून, 1981, डॉ. एम.पी. शर्मा का लेख
'ब्रजभाषा के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज', पृ. 68-72 2. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 22
पाण्डुलिपि : प्रकार
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