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मिट्टी या खड़िया से पोत कर पुनः लिखा जाता था। वस्तुतः पाटी पर पोती जानेवाली मुलतानी को 'पाण्डु' कहा जाता था। इसलिए प्रारंभ में मूललेख को 'पाण्डुलिपि' कहा जाने लगा था। बौद्ध जातक कथाओं में छात्रों द्वारा काष्ठफलकों पर लिखे जाने का विवरण मिलता है । जैनों के 'उत्तराध्ययन सूत्र' की टीका की रचना सं. 1129 में नेमिचन्द्र नामक विद्वान द्वारा की गई थी। उसमें भी काष्ठीय या पाटी से नकल करने का उल्लेख मिलता है। खरोष्ठी लिपि में लिखित कुछ काष्ठपट्टीय ग्रंथ खोतान में भी उपलब्ध हैं। कभी-कभी तो ग्रंथ की सुरक्षार्थ ऊपर-नीचे लगाए गए काष्ठ फलकों पर भी लेख मिलते हैं । काष्ठ फलकों पर लेखनकला की तरह चित्रकला का भी अंकन हुआ है। चित्रकला उपादानों में काष्ठ फलक के चित्र सबसे ज्यादा टिकाऊ और रंग चमकीले रहते हैं। जैन ज्ञान भण्डारों में ताड़पत्रीय प्रतियों के काष्ठफलक लगभग 900 वर्ष प्राचीन मिलते हैं। इन चित्रों में प्राचीनतम चित्र श्री जिनबल्लभ सूरि और श्री जिनदत्त सूरि जी के हैं। उनके थोड़े समय बाद कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य कुमारपाल व वादिदेव सूरि कुमुदचंद के शास्त्रार्थ के भाव चित्रित काष्ठ फलक भी पाये जाते हैं। चित्र कलात्मक काष्ठ फलकों की दृष्टि से राजस्थान में जैसलमेर के ग्रंथ भण्डार अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । काष्ठ स्तम्भों एवं भज की गुफा की छतों की काष्ठ मेहराबों पर भी लेख प्राप्त हुए हैं।
(छ) काग़जीय : हमारे देश में प्राचीन काल से ही ताड़पत्र, भोजपत्र, कपड़े पर लिखने एवं चित्रांकन की परम्परा रही है। इसी प्रकार कागज भी यंत्रमंत्र एवं ग्रंथादि लिखने के काम में आता था।
कागज बनाने का सर्वप्रथम प्रयास सन् 105 ई. में चीन में किया गया। सिकन्दर महान के भारत आक्रमण (सन् 327 ई.पू.) के समय भारत में रूई से बने कागज का उल्लेख मिलता है। यह कागज रूई एवं चिथड़ों की कूट-कूट कर लुगदी बनाकर बनाया जाता था। लेकिन इस पर ग्रंथ लिखने का रिवाज कम था। इससे इतना ही समझना चाहिए कि भारतीय ईसा से चार शताब्दी पूर्व भी एशिया और योरोप के अन्य देशों की तुलना में कागज बनाने की विधि जानते थे।
हमारे देश के कश्मीर, दिल्ली, दौलताबाद, अहमदाबाद, शाहाबाद, पटना, कानपुर, घोसुण्डा (मेवाड़), खंभात एवं सांगानेर में प्राचीन काल से ही कागज 1. The Researcher, Vol. VII-IX, 1966-68. pp. 69.
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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