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थे। “अगरुवल्कल-कल्पित - सञ्चयानि च सुभाषितभाञ्जि पुस्तकानी इससे पूर्व बौद्ध-तांत्रिक ग्रंथ भी सांचीपात या अगरुवल्कल पत्रों पर लिखे जाते थे। महाराजा संग्रहालय, जयपुर में भी 'सांचीपात' पर लिखित महाभारत के कुछ पर्व प्राप्त हुए हैं I
(घ) पटीय ( वस्त्र - पत्र ) : प्राचीनकाल में पाण्डुलिपि लिखने, चित्र बनाने एवं यंत्र-मंत्रादि लिखने हेतु सूती कपड़े का प्रयोग किया जाता था । सूती कपड़े के छिद्रों को भरने के लिए आटा, चावल का मांड, ल्हाई या मोम लगाकर उसकी परत बनाकर सुखा लेते थे। सूखने पर आकीक, पत्थर, शंख, कौड़ी या कसौटी के पत्थर से घोटकर उसे चिकना बनाया जाता था। इसके बाद उस पर लेखन या चित्रांकन किया जाता था। ऐसे पटीय ग्रंथ 'पट-ग्रंथ' तथा पटीय चित्र 'पट - चित्र' कहलाते थे। ऐसे पटों पर यंत्र-मंत्रादि लिखे जाते थे । जैन मतावलंबी उस पर अढाई द्वीप, तीन द्वीप, तेरह द्वीप, जम्बू द्वीप तथा सोलह स्वप्न आदि के चित्र एवं नक्शे भी बनाते थे। धीरे-धीरे मंदिरों में प्रतिमा के पीछे की दीवार पर लटकाने के सचित्र पट भी बनने लगे। इन्हें पिछवाई कहते हैं । राजस्थान में इस प्रकार की पिछवाई बनाने का केन्द्र नाथद्वारा रहा है, जहाँ श्रीनाथजी की बहुमूल्य एवं सुन्दर - सुन्दर पिछवाइयाँ बनाई जाती हैं। राजस्थान के लोकदेवताओं, जैसे- पाबूजी, रामदेवजी, देवनारायणजी आदि की ' पड़ें' भी ऐसे ही पटों पर चित्रांकित की जाती रही हैं ।
महाराजा संग्रहालय, जयपुर में 17वीं - 18वीं शताब्दी के पटों पर लिखित एवं चित्रित अनेक तांत्रिक नक्शे, देवचित्र एवं वास्तुचित्र उपलब्ध हैं। मोम लगे 'मोमियापट' पर प्रायः बड़ी-बड़ी जन्मपत्रियाँ बनाई जाती थीं । संवत् 1711 से 1736 वि. के मध्य लिखी महाराज रामसिंहजी के पुत्र कृष्णसिंहजी की ऐसी ही जन्मपत्री 456 फीट लम्बी एवं 13 इंच चौड़ी सुरक्षित है। इस पर जयपुर के इतिहास के साथ-साथ अनेक सम-सामयिक चित्र भी लिखे या बनाये गये हैं । प्राचीन पंचांग (ज्योतिष) भी कपड़ों पर लिखे मिलते हैं ।
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जैन धर्मावलम्बियों द्वारा 'पर्यूषण पर्व' के अन्तर्गत अनेक सामूहिक क्षमापन पत्र भी ऐसे ही पटों पर लिखे जाते थे । इन्हें 'विज्ञप्ति - पत्र' भी कहा जाता था । इस प्रकार के पत्रों की खोज जैन-ग्रंथ-भण्डारों में अपेक्षित है ।
1. हर्षचरित : बाणभट्ट, सातवाँ उच्छवास ।
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सामान्य पाण्डुलिपिविज्ञान
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