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(ख) भोजपत्रीय ग्रंथ : भूर्ज नामक वृक्ष की छाल पर लिखी हुई रचनाएँ ही भोजपत्रीय रचनाएँ कहलाती हैं। इस प्रकार के ग्रंथ उत्तर भारत के कश्मीर क्षेत्र में अधिक पाए जाते हैं। भूर्जपत्र पर लिखित सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ खोतान से प्राप्त 'धम्मदद' (प्राकृत) का कुछ अंश है। यह ईसा की दूसरी शती का माना जाता है। ईसा की चौथी शताब्दी में लिखित दूसरा भोजपत्रीय बौद्ध ग्रंथ डॉ. स्टाइन को खोतान के खब्लिक स्थान से मिला था। मिस्ट बाबर को प्राप्त पुस्तकें छठी शताब्दी की हैं तथा बख्शाली का अंकगणित 8वीं शताब्दी का है। 15वीं, 16वीं शताब्दी में लिखित भोजपत्रीय ग्रंथ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर एवं महाराजा संग्रहालय, जयपुर में भी सुरक्षित मिली हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली में भी 5-6 शती के भोजपत्रीय गुप्तकालीन लिपि-लिखित बौद्ध-ग्रंथ भैषज्य गुरुवैदूर्य प्रभासूत्र सुरक्षित हैं।
(ग) अगरुपत्रीय [या सांची (समूची) पातीय ] : पूर्वी भारत के आसाम में अगरुवृक्ष की छाल से तैयार पत्रों पर ग्रंथ लिखने और चित्र बनाने की परम्परा थी। अत्यधिक कष्ट से प्राप्त अगरुपत्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथ या राजामहाराजाओं के लिए लिखे जाने वाले ग्रंथ होते थे। लिखे हुए पत्रों पर संख्यामूलक अंक दूसरी ओर 'श्री' अक्षर लिखकर अंकित किया जाता था। प्रत्येक पत्र के मध्य में छिद्र बनाया जाता था, जिसमें पिरोकर डोरी बाँधी जाती थी। लिखित पत्रों की सुरक्षा के लिए ऊपर-नीचे लकड़ी के पट्टे या अगरु के ही मोटे पत्र लगाए जाते थे, जिन्हें 'बेटी पत्र' कहा जाता था।
लिखावट या चित्र बनाने से पूर्व इन पत्रों को मुलायम एवं चिकना बनाने के लिए 'माटीमाह' का लेप किया जाता था। इसके बाद कृमिनाशक हरताल (पीले रंग) से रंग देते थे। धूप में सूखने के बाद अगरु छाल के ये पत्र चिकने हो जाते थे। ऐसे पत्रों को आसाम में 'सांचीपात' कहा जाता है। कोमलता और चिकनेपन के कारण ये पत्र दीर्घायु भी होते थे। __भारत में 7वीं शती के 'हर्ष चरित' में बाणभट्ट ने 'अगरपत्रों' के प्रयोग करने की बात का उल्लेख किया है। वह कहता है कि कामरूप के राजा भास्कर वर्मा ने सम्राट हर्षवर्धन के दरबार में अगरु छाल पर लिखे हुए ग्रंथ भेंटस्वरूप भेजे 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला : ओझा, पृ. 1441
पाण्डुलिपि : प्रकार
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