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प्रस्तावना
(प्रथम संस्करण)
अपभ्रंश भारतीय आर्य-परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है। इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है। स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, रइधू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं। कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊँचा रख सकती है। विद्वानों का मत है "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर-भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भावविनिमय और व्यवहार की बोली रही है।'' यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। इस तरह से राष्ट्र भाषा का मूल स्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है। यह कहना युक्तिसंगत है - "अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा और सुदृढ़ है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं। हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।'' डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - “हिन्दी साहित्य में (अपभ्रंश की) प्राय: पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।' अत: राष्ट्रभाषा हिन्दीसहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपभ्रंश भाषा को सीखना-समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रखकर “अपभ्रंश रचना सौरभ" नामक पुस्तक की रचना की गई है। इस पुस्तक के पाठों को ऐसे क्रम में रखा गया है जिससे पाठक सहज-सुचारु रूप से अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को सीख
1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृष्ठ 287। 2. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, 1979, पृ. 9। अपभ्रंश रचना सौरभ
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