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९६ / पार्श्वपुराण
तिस ईसानदिसा सुभ थान । मनिमय सिला सासती जान || पांडुकमाम फटिक उनहार । आकृति अर्ध चंद्रमाकार ||४७|| सौ जोजन आयाम अभंग । विस्तर आधी आठ उतंग || सुर विद्याधर पूजत नित्त । भरतखंड - जिन - न्हौन - पवित्त ॥४८॥ तहां हेम-सिंहासन सार । रत्नजड़ित सो बलयाकार || धनुष पांचसौ उन्नत जोय । भूमिभाग विस्तीरन सोय ||४९|| ऊपर जास अर्ध बिस्तार । जाके तेज मिटै अँधियार || तिसहीपर पदमासन साज । पूरबमुख थापे जिनराज ||५०||
इस औसर सोहैं इमि ईस । मानौं मेघ रतनगिरि - सीस || धुजा कलस दर्पन भृंगार । चमर छत्र सुप्रतिष्टक तार ॥५१॥
मंगल दर्व मनोहर जहां । धरे अनादि-निधन ये तहां ॥ आसन दोय उभय दिस और । जुगलइंद्र ठाड़े तिहि ठौर ॥ ५२ ॥ चारौं दिस चारौं दिगपाल । जथाजोग जिन-मज्जन काल ॥ सची सुरेंद्र अछरा थोक । सब ठाड़े पांडुकबन रोक ||५३ ||
चौबिध देव खड़े चहुँपास । जनम-न्हौन देखन हुल्लास || कियौ महामंडप हरि तहां । तीन लोक जन निवसैं जहां ॥ ५४ ॥
कल्पकुसुम-माला मनहार । लटकै मधुप करें झंकार | सुर वाजि बजैं बहुभाय । सुरभि सुगंध रही महकाय ||५५||
मंगल मिल गावैं सब सची । नाचैं सुर-वनिता रस-रची ॥ तब मज्जन आरंभ विसेस । उद्यम कियौ प्रथम अमरेस ॥ ५६ ॥
दोहा । तहां कुबेर रतन खची, रची पैडका पंत ॥ मेरु सिखरसौं सोहिये, छीरोदधि परजंत ॥५७॥
सुर-श्रेणी सोपान - पथ, पंचम सागर जाय ॥ भर लाई कंचन - कलस, चंदन चरचित काय ||५८||
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