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९४/पार्श्वपुराण
तिस हाथी ऊपर सचीसंग । सौधर्म सुरगपति मुदित अंग ।। आरूढ भयौ अति दिपत एम | उदयाचल-मस्तक भानु जेम ।।२४।। चंद्रोपम चामर छत्रसीस । दसजाति कलप-सुर-सहित ईस ॥ ईसानप्रमुख इमि देवराज । निज निज बाहनकौं चले साज ।।२५।। परिजन-समेत उर हरष भाव । जिन जनमकल्यानक करन चाव ।। बाजे सुरदुंदभि विबिध भेव । जयकार करें मिलि सकल देव ।।२६।। उपज्यौ कोलाहल गगन थान | सब दिसि दीखें बाहन विमान || आकास सरोवर अति गंभीर । इंद्रादि अमर तन तेज नीर ||२७|| तहां विकसत मुख अपछरा एम । यह खिल्यौ कमलिनी-बाग जेम || इहि बिध देवागम भयौ जान । अवतरे बनारस नगर थान ||२८|| चंद्रादि जोतिषी पंच जात । दस भेद भवनवासी विख्यात || पुनि आठ जातके वान देव । सब आये इन्द्र-समेत एव ।।२९।। निज निज बाहन चढ़ि सपरिवार | जिन जन्म-महोच्छव हिथें धार ।। तब पुर-प्रदच्छिना सुरन दीन । अति हरखत उर जयकार कीन ||३०|| बन बीथी मारग गगन रोक । सब ठाड़े देवी देव थोक || सब सक्र सची मिलि भूप-गेह । आये घर आंगन भरो तेह ||३१।। तब इंद्रबधू अति रंजमान । सो गई गुपत जिन-जनमथान ।। देखी जिनमात सपुत्त ताम | परदच्छिन दै किनौं प्रनाम ||३२।। सुत-रागरँगी सुख सेज मांझ । ज्यों बालक-भानु समेत सांझ ।। कर जोरि जुगल सिर नाय नाय । थुति कीनी बहु जानै न माय ||३३।। सुखनींद रची तब सची तास | मायामय राख्यौ पुत्र पास || करकमलन बालक-रतन लीन । जिन कोटि भानु-छबि छीन कीन ||३४|| सुख उपजै जो प्रभु परस देह । कवि-वानीगोचर नाहिं तेह ।। प्रभुको मुखवारिज देख देख । हरखै सुररानी उर विसेख ॥३५॥
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