SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ अधिकार/८५ सूरजवंसी जे कमल, खिले सरोवर माहिं ।।। ज्यों जिनबिंब विलोकिकै, भविलोचन विकसाहिं ॥१०४।। चंद-विकासी कमल जे, विकसत भये न सोय ।। ज्यों अजान जिनवचन सुनि, मुदित मूल नहिं होय ||१०५।। चक्रवाक हरखित भये, ज्यों जिनमत-संजोग ।। जीव सुमति पिय-नारिको, मिट्यौ अनादि वियोग ||१०६।। घूघूगण भूतल विषै, आंधे भये असूझ ।। जैनग्रन्थके रहसमैं, ज्यों परमती अबूझ ||१०७।। कमल-कोष मधुकर बँधे, छुटे जग्यौ सिर-भाग || जथा जीव जिनधर्मसौं, मुक्त होय भवत्याग ||१०८।। पथिक लोग मारग चले, सूझे घाट कुघाट || जिनधुनि सुनि सूझै जथा, सुरग मुकतिकी बाट ||१०९।। इहि बिध भयौ प्रभात सुभ, आनंद भयौ अतीव ।। धर्मध्यान आराधना, करन लगे भवि जीव ||११०|| जिन-जननी रोमांच तन, जगी मुदित मुख जान || किधौं सकटंक कमलिनी, विकसी निसि अवसान ||१११।। मंगलीक वाजित्र धुनि, सुनि बंदीजन-गान ।। उठी सेज तजि सुखभरी, धस्यौ हियँ सुभ ध्यान ||११२।। सामायिक-बिध आदरी, पंच परमपदलीन || और उचित आचार सब, स्नान-विलेपन कीन ||११३।। पहरे सुभ आभरन तन, सुंदर वसन सुरंग ।। कलपबेल जंगम किधौं, चली सखीजन संग ||११४।। राजसिंहासन भूप तब, बैठे सभा-सुथान ।। देवी आवत देखक, कियौ उचित सनमान ||११५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy