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पाँचवाँ अधिकार/८३
अस्वसेन भूपतिके धाम । पंचाचरज करौ अभिराम ॥ यह सुरेंद्रने आज्ञा करी । सो कुबेर निज माथै धरी ।।८२।। चल्यौ तुरत लाई नहिं बार । सोहै संग अमर-परिवार || हरषित अंग पिता घर आय | करी रतन-वर्षा बहुभाय ||८३।। जिनके तेज तिमिर नहिं रहै | नाना वरन प्रभा लहलहै ।। ऐसे निर्मोलक नग भूर | बरसे नृपके आंगन पूर ||८४।।
दोहा । नभसौं आवै झलकती, मनिधारा इहि भाय ।। सुरग लोक-लछमी किधौं, सेवन उतरी माय ||८५।।
चौपाई। साढ़े तीन कोड़ परवान । यौं नित बरसैं रतन महान ।। सुरभि सुगंध कलपतरु फूल । बरसावै सुर आनंदमूल ||८६|| गंधोदककी बरसा करें । मानौं मुकताफल अवतरै ।। प्रतिदिन देव-दुंदुभी बजै । किधौं महासागर यह गजै ।।८७|| नंद वरद जयजय उच्चएँ । मात पिता प्रति सुर यौं करें ।। इहि बिध पंचाचरज विलोक | जैन भये मिथ्याती लोक ||८८।।
दोहा। देवन किये छ मास लौं, पंचाचरज अनूप || देखि देखि परजा भई, आनँद अचरजरूप ||८९।।
चौपाई। यों अति आनंदसौं दिन जाहिं । माता मगन सुखोदधि माहिं ।। मानिक-जटित मनोहर धाम । रत्नपलंक सेज अभिराम ||९०।। मनिमय दीप जहां जगमगें । अति सुगंध आवत अलि पगैं ।। करि चतुर्थ आनंद-सनानि । करै सयन जननी सुख मानि ।।९१।। पच्छिम रैन रही जब आय । सोलह सुपर्ने देखे माय ।। तिनके नाम लिखौं अवलोय | पढ़त सुनत पातक छय होय ।।९२।।
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