________________
७८/पार्श्वपुराण
बीस सरोवर और सुनेह । सीता सीतोदामधि तेह ।। उत्तम मध्यम जघन विसेस । भोगभूमि छह कही जिनेस ||२४|| महादेस चौंतीस सुखेत । ऐरावत अरु भरत समेत ।। इतनी ही नगरी परवान । आरज-खंड मध्य थिर थान ||२५|| उपसमुद्रकी संख्या यही । कछू विनासिक कछु थिर सही ।। पूरब दिस दो बाग महंत । देवारन्य दीपके अंत ।।२६।। ऐसे ही पच्छिम दिस दोय । भूतारन्य नाम तिन होय || गंगादिक सरिता दसचार । चौंसठ महा विदेह मझार ||२७|| बारह विपुल विभंगा जेह । महानदी नब्बै सब येह ।। इतने ही सब कुंड महान । जहां तरंगिनि उतरै आन ||२८।। सत्रह लाख सबन परिवार | सहस छानवै ऊपर धार ।। यह सब जंबूदीप समास । आगममैं विस्तार प्रकास ||२९।।
दोहा । यही कथन अंगनविष, बरन्यौ गनधर ईस ।। तीन लाख पदमैं सही, ऊपर सहस पचीस ॥३०॥
चौपाई। यों अनेक रचना आधार । दीपराज राजै अधिकार ।। तहां मेरुके दच्छिन भाग । किधौं भूमितिय सुभग सुहाग ।।३१।। भरतखंड छहखंड समेत । धनुषाकार विराजत खेत ।। तामैं सब सुख धर्म निवास । कासीदेश कुसल जनवास ॥३२।। गांव खेट पुर पट्टन जहां । धन-कन भरे बसैं बहु तहां ।। निवसैं नागर जैनी लोय । दयाधर्म पालैं सब कोय ||३३।। जिनमंदिर ऊँचे जिनमाहिं । नरनारी नित पूजन जाहिं ।। पद पद पुरपंकित पेखिये । उदवसथान (?) न कहिं देखिये ||३४।। नीर अगाध नदी नित बहैं । जलचर जीव जहां नित रहैं ।। मुनिजन-भूषित जिनके तीर | काउसग्ग धरि टाड़े धीर ||३५||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org