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तिनमैं सोभावंत सुहात । जंबूदीप जगतविख्यात ।। लच्छ महाजोजन विस्तार । सूरजमंडलकी उनहार ||१२||
पाँचवाँ अधिकार/७७
वज्रकोट जिस ओट अभंग । परिमित जोजन आठ उतंग || चारौं दिस दरवाजे चार । तिनके नाम लिखौं अवधार ||१३||
विजय नाम पूरब मैं जान । वैजयंत दच्छिन दिस ठान ।। पच्छिम भाग जयंत दुवार । उत्तरमैं अपराजित सार ||१४||
लवन-समुद्र खातिकारूप । चहुंदिस बेट्यौ सजल सरूप ।। तहां सुदरसन मेरु महान । मध्य भाग सोभा असमान || १५ ॥ अति उतंग लख जोजन सोय । रिजु विमान जा ऊपर होय || सब सैलनमैं ऊंचो यहै । ग्रीव उठाय किधौं इम कहै ||१६||
करै कौन गिरि मेरी रीस । जिनपति न्हौन होय मुझ सीस || चारौं दिस चारौं गजदंत । नील निषधसौं लगे महंत ||१७||
छह कुलपर्वत बड़े विथार । पूरब पच्छिम दीरघ सार || आठ महागिरि दिग्गज नाम । मेरु निकट आठौं दिस ठाम ||१८||
कनक बरन सोलह बच्छार । महा-विदेह विषै छबिसार ॥ कंचनगिरि दीसे परवान । सीता सीतोदा तट थान ||१९||
कुरु भूमाहिं जमक गिरि चार । नील निषधके निकट निहार || चार नाभिगिरि मिथ्या नाहिं । मध्यम जघनभोग-भूमाहिं ||२०||
विजयारध पर्वत चौंतीस । इतने ही वृषभाचल दीस || ते मलेच्छमधिखंडनबिखै । चक्री जहां नांव निज लिखें ||२१||
गिरि दीप विषै बरनये । ग्यारह अधिक एक सौ भये || भद्रसाल बन दोय सुबास । पूरब अपर मेरुके पास ||२२||
दो तरु जंबू- सेंभल तनैं । उत्तम भोगभूमि मैं बनैं II छह द्रह बड़े कुलाचलसीस । पदम महापदमादिक दीस ||२३||
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