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७६/पार्श्वपुराण पाँचवाँ अधिकार
गर्भावतारवर्णनं ।
दोहा । बंदौं पारस पद-कमल, अमल बुद्धि-दातार || अब बरनौं जिनराजके, पंच कल्यानक सार ||१||
चौपाई। प्रथम अनंत अलोकाकास । दसौं दिसा मरजाद न जास ।। दूजौ दरब जहां नहिं और | सुन्न सरूप गगन सब ठौर ||२|| तहां अनादि लोकथिति जान । छीदे पाँय पुरुष-संठान || कटिपै हाथ सदा थिर रहै । यह सरूप जिनसासन कहै ।।३।। पौन पिंड बेढ्यौ सरवंग । चौदह राजू गगन उतंग ।। घनाकार राजू गन ईस | कहे तीन सौ तैंतालीस ।।४।। जीवादिक छह दरब सदीव । तिनसौं भस्यौ जथा घट घीव ।। स्वयंसिद्ध रचना यह बनी | ना इस करता हरता धनी ||५|| दरब दृष्टिसौं ध्रौव्य-सरूप । परजयसौं उतपतछयरूप ।। जैसे समुद सदा थिर लसै । लहर न्याय उपजै अरु नसै ।।६।। लोक-नाड़ि तिस मध्य महान | चौदह राजू व्योम उचान || राजूमित चौंड़ी चहुंपास | यह त्रसखेत जिनागम भास ||७|| याके बाहर जंगम जीव । समुदघात बिन नाहिं सदीव || तामैं तीनौं लोक बिसाल । ऊरध मध्य और पाताल ||८|| सोलह स्वर्ग पटल बावन्न । नव ग्रीवक नव जान रवन्न ।। अनुदिस और अनुत्तर येह । एक एक ही पटल गिनेह ।।९।। ये सब त्रेसठ पटल बखान । सिद्धखेत सोहैं सिर थान || ऊरध लोक बसै इहि भाय । उत्तम सुरथानक सुखदाय ||१०|| अधोलोकमैं बहु बिध भेय । सात नरक असुरादिक देव ।। मध्यलोक पुनि तीजौ तहां । असंख्यात दीपोदधि जहां ||११||
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