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________________ इहबिध बिबिध करै सुभकाज | महापुन्य संचै सुरराज ॥ दरसन ग्यान रतनभंडार । चारित गुनको नहिं अधिकार ||२३६॥ धर्म-वासना-वासित जोग । करै पुनीत पुन्यफल भोग || कबही सुनै अपछरा-गान । निरखै नाटक निरुपम थान || २३७॥ चौथा अधिकार/७५ कहीं सुभ सिंगार रसलीन । हाव भाव जोवै परवीन ॥ कहीं हास्यकथा विस्तरै । वनक्रीडा देविन सँग करे ||२३८|| यौं नानाबिध करत विलास । प्रतिदिन सुखसागर मैं बास ।। साढ़े तीन हाथ परवान । दिव्य सरीर अतुल दुतिवान || २३९॥ सागर बीस परमथिति जास । बीस पच्छ पर लेय उसास || बीसहजार वर्ष अवसान । मनसा भोजन करै महान ||२४०॥ पंचम पिरथी लौं जिस सही । अवधि सकति जिनसासन कही ॥ तावत मानविक्रियाखेत । सकल काज साधन सुखहेत || २४१|| असंख्यात सुर सेवन पाय । देवी नेत्र-कमल-दिनराय ॥ यों पूरवकृत पुन्यसँजोग । करैं इंद्र इंद्रासन भोग || २४२ ॥ दोहा । कहा इंद्र अहमिंद्र पद, जनम धरै फिर आय ॥ जैनधर्म नृपकी धुजा, लोक-सिखर फहराय ॥ २४३ ॥ इति श्रीपार्श्वपुराणभाषायां आनन्दरायइन्द्रपदप्राप्तिवर्णनं नाम चतुर्थोऽधिकारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002686
Book TitleParshvapurana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi, Nathuram Premi
PublisherSanmati Trust Mumbai
Publication Year2001
Total Pages175
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size6 MB
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